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________________ श्री गष्टसंत शिशमणि अभिनंदन गंथा आहट पाकर उसकी बहिन जो पुरुष वेश में अपनी भाभी के पास सोयी थी, चौंककर उठ बैठी और बोली - "आओ भाई ! इस अंधेरी रात में इस समय कहां से आ रहे हो?" क्या बहिन तू? पुरुष वेश में ! ऐसा क्यों किया? शंका में मैं तुम दोनों को मौत के घाट उतार रहा था । सरदार ने कहा । "भाई ! आप तो उधर गये और पीछे एक शत्रुदल यहां आ गया था । मैंने तुम्हारी वेशभूषा पहनकर सामना किया। वे इस वेश के बहाने तुम्हें समझ कर भाग गये । कहीं फिर न आ जाय इस कारण मैंने वेश नहीं बदला।" अनाज की कमी आ जाने के कारण सम्पूर्ण उत्तरदायित्व बहिन और पत्नी को सौंप कर सरदार अकेला ही चोरी करने निकल पड़ा । वह सोचने लगा - कहीं बड़े खजाने में डाका डालूं ताकि जीवन पर्यन्त आराम से बैठकर खाऊँ। वह शीघ्रता से शहर के निकट आ पहंचा । रात का समय था । नगरवासी गहरी नींद में थे । वह राजमहल के पास जा पहुंचा । पहरेदार सभी निद्रादेवी की गोद में आराम की नींद सो रहे थे । चोर सरदार ने महल के पीछे से प्रवेश किया । रात्रि के शान्त वातावरण में सरदार के प्रवेश करने की आहट से रानी की नींद उचट गई । वह समझ गई कि कोई महल में घुस आया है । वह डरी नहीं वरन् उसके रंग रूप गठीला बदन एवं यौवन को देखकर मोहित हो गई । चोर इधर-उधर छिपना चाह रहा था पर - "कौन?" धीमें स्वर में रानी ने पूछा । मैं चोर हूं।" धैर्यपूर्वक चोर सरदार ने उत्तर दिया । मैं तुम्हें अपार धन राशि दे सकती हं पर शर्त यह है कि तुम मेरे साथ प्यार भरी बातें करो । "अन्य रानियों, नारियों को मैं माता व बहिन समान मानता हूं । तुम भी बहिन के समान हो ।” चोर सरदार ने उत्तर दिया । यदि तुमने मेरा उपभोग किया तो मैं तुम्हें अपने हृदय के ताज पर ही नहीं अपितु अवसर मिला तो सारे देश का ताज भी प्रदान करवा सकती हूं । तनिक सोचो, और मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लो । मैं पक्का चोर हं. मैं अपनी मर्यादा व सत्य धर्म को बेच कर नहीं आया हूं । तेरे अनुरोध को सौ बार ठुकराता हूं और धिक्कारता हूं । मैं हर्गिज तेरे जाल में आने वाला नहीं हूं। राजा, चोर और रानी के बीच हो रही बातचीत को छिपकर सुन रहा था । उसने निष्कर्ष निकाला कि चोर तो है पर रानी ही चरित्रहीन है । रानी ने पुनः कहा - "देखो ! तुम्हारा जीवन मौत के मुंह में चला जायेगा, तुम्हें अभी सोचने का अवसर देती हूं।" "मेरे प्राण भले ही चले जायें, किन्तु मैं तेरे साथ बैठ नहीं सकता हूं । चोर ने कहा । जब रानी की स्वार्थ पूर्ण हीं हुई तो वह जोर जोर से चिल्लाने लगी - "आओ ! आओ ! चोर ! चोर ! पकड़ो! पकड़ो !" चोर को पकड़ लिया गया और दूसरे दिन उसे प्रातः राजा के सामने उपिस्थत किया गया । चोर व रानी के बीच हुई बातचीत को प्रारंभ से अन्त तक राजा ने सुन लिया था । अतः चोर की विजय हुई, रानी को दण्ड दिया गया। राजा ने कहा – “मैं तुम्हारी सत्यता पर अत्याधिक प्रसन्न हूं, तथा प्रभावित हुआ हूं । अतः निर्भय होकर अपना परिचय दो ।" चोर ने अपना परिचय दे दिया, जिसे सुनकर राजा बहुत प्रभावित हुआ । और बोला - "मेरे कोई सन्तान नहीं है। तुम मेरे धर्म पुत्र हो, मैं तुम्हें अपना युवराज बनाना चाहता हूं । तुम्हारी कौशलता और ईमानदारी से मैं सन्तुष्ट हूं । तुम्हारे परिवार में और कौन-कौन है?" हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति cation Nandicrary.ory
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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