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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ............ एक दिने उसे खिन्न एवं उदासीन देख कर गुरु ने पूछा - "वत्स! तू इतना खिन्न और उदास क्यों रहता है ? तू गृहस्थ की ममता छोड़कर पढ़ने के लिये एवं साधना के क्षेत्र में यहां आया है । यहां आकर तुझे सर्वथा स्वस्थ एवं प्रसन्न रहना चाहिये । विद्यार्थी जीवन के साथ खिन्नता और उदासीनता का मेल नहीं बैठता है । शिष्य ने कहा – “गुरुदेव! आपका कथन सत्य है । मुझे खिन्न और उदास नहीं रहना चाहिये । आपके श्री चरणों में मुझे किसी भी प्रकार का अभाव नहीं है । आपका असीम अनुग्रह ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी थाती है। परन्तु क्या करूं अपनी मन्द बुद्धि पर मुझे बड़ा दुःख होता है । मैं अधिक शास्त्राध्ययन नहीं कर सकता । मुझे तो थोड़े से में बहुत कुछ आ जाये, आपकी ऐसी कृपा चाहिये ।" _ आचार्य ने कहा - "चिन्ता मत कर । मैं तुझे ऐसा ही छोटा सा एक सूत्र बतला देता हूँ, उसका तू चिन्तन मनन कर, अवश्य ही तेरी आत्मा का कल्याण होगा । सभी धर्म और दर्शन की चर्चा का सार इस एक सूत्र में आ जाता है । आचार्य ने अपने उस मन्द बुद्धि शिष्य को यह सूत्र बतलाया - न किसी के प्रति द्वेष कर और न किसी के प्रति राग कर । मोह ममता का भी त्याग कर तथा सदा एक ही बात का ध्यान करके उस पर गंभीरता पूर्वक विचार कर कि जो कुछ हूँ मैं ही हूँ । इस संसार सागर में रहकर मुझे पार उतरने का प्रयत्न करना चाहिये । साधना का सार इसीमें है । आचार्य ने अनुग्रह करके बहुत ही सारगर्भित अर्थपूर्ण वाक्य बतला दिया और कहा - वत्स! ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त होकर एकाग्रचित हो बगुले की तरह ध्यान मग्न होकर शान्ति पूर्वक चिन्ता मुक्त होकर चिन्तन मनन करना । मेरा आशीर्वाद है कि थोड़े ही दिनों में तुम्हारी बुद्धि में तेजस्विता आ जाएगी। उस मन्द बुद्धि शिष्य को अपने गुरु के वचनों पर अटल आस्था थी, इसलिये उसने गुरु के निर्देशानुसार, ब्रह्ममुहूर्त में उठकर गुरु द्वारा बताये वाक्य को मन ही मन स्मरण कर उस पर चिन्तन करता । अर्थ से सत्य उस वाक्य का भावात्मक ध्यान करते हुये एक दिन उस मन्द बुद्धि शिष्य को ज्ञान की वह अमर ज्योति प्राप्त हो गई जो एक बार प्रज्वलित होकर फिर कभी बुझती नहीं है, जो एक बार प्रकट होकर फिर कभी नष्ट नहीं होती है । आचार्य के दूसरे शिष्य जो बड़े बड़े ज्ञानी और पण्डित थे, इस मन्द बुद्धि शिष्य के समक्ष हतप्रभ हो गए । ज्ञान की महाप्रभा के समक्ष उनके ज्ञान की प्रभा उसी प्रकार फीकी पड़ गई, जैसे कि सूर्योदय होने पर तारा मण्डल की प्रभा फीकी पड़ जाती है । गुरु को तथा अन्य शिष्यों को जब उक्त तथ्य का पता चला, तब वे सब आश्चर्य चकित हो गए । गुरु के हृदय में इस बात की परम प्रसन्नता थी, कि मेरे शिष्य का अज्ञान सर्वथा दूर हो गया और ज्ञान की वह अमर ज्योति उसे प्राप्त हो गई जो अभी तक मुझे और अन्य शिष्यों को भी प्राप्त नहीं हो सकी है । इससे बढ़कर गुरु को और क्या प्रसन्नता हो सकती थी । बुद्धि बिकाऊ है, मदन नित्य मित्रों के साथ रहकर व्यर्थ खर्च किया करता था । जिसके कारण उसकी पत्नी यशोदा बहुत परेशान थी । घर में भुनी भांग नहीं पर मदन के यहाँ एक न एक अतिथि बना ही रहता था । मदन स्वयं इस परेशानी से मुक्त होना चाहता था पर करता क्या? आदत से लाचार था । पत्नी यशोदा की दिन-रात जली कटी बातें सुनते-सुनते मदन के नाकोदम आ गया । तब कहीं राम-राम करके उसने दस रुपये कमाकर अपनी पत्नी को दिये । दस रुपये पाकर यशोदा फूली न समाई । मारे खुशी के उसके भूमि पर पांव नहीं पड़ते थे । क्योंकि पहले उसका पति जो कुछ कमाता था उसका आधा भाग मित्रों के साथ खर्च कर देता । यशोदा इस शुभ दिन के लिये परमात्मा को लाख-लाख धन्यवाद दे रही थी कि मदन पण्डित बाहर से हांफता हुआ आया और बोला- जल्दी कर वह रुपये कहां है? शीघ्र निकाल, मैं बाजार से सामान लाऊँ और तू ... " हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 56 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Main Education meatonal PERStseep
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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