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________________ ष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ तुम्हें राजा साहब दरबार में बुला रहे हैं । इस पर साधु मुस्करा कर बोला - "अपने महाराज से कहना कि मैं राम के दरबार को छोड़कर गंगाराम, के दरबार में नही जा सकता ।" घुड़सवारों ने राजा से जाकर कहा तो राजा की आंखों खुल गई।" वह सोचने लगा - "भगवान कितने दयालु है, जो मेरी आशा लगाकर बैठा था, उस चापलूस साधु को मैंने देना चाहा, पर उसका पुण्य प्रबल न था, इसलिये उसकी आशा फलित नहीं हुई और जो साधु हम में से सांसारिक लोगों की आशा न रखकर एक मात्र भगवान् की शरण में गया और उनकी कृपा का विश्वास रखा। उसे न देने पर भी अशर्फियाँ उसी के हाथ लगी । राजा ने तत्काल उस चापलूस साधु आशादास को बुलाकर कहा - सन्त प्रवर ! अब से मेरा नाम फिर कभी न लेना और न मुझसे कुछ पाने की आशा रखना । देने वाला तो ऊपर बैठा हैं। मैंने तुम्हारे द्वारा की गई प्रशंसा से अहं में आकर तुम्हें मालामाल कर देना चाहा था, पर भगवान को वह स्वीकार नहीं था ।" उस दिन से आशादास साधु को भी शिक्षा मिल गयी कि सांसारिक लोगों से आशा रखना ठीक नहीं । विश्वास तो भगवान पर ही होना चाहिये । यह है दोनों साधु की आदत का अन्तर । भाग्य का खेल किसी नगर में मदनलाल नाम का एक धनिक सेठ रहता था, जो स्वभाव से बड़ा दयालु था । गरीबों के दुःख दर्द को दूर करने में सदा तत्पर रहता था । याचकगण उसके द्वार से कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे । उसके एक पुत्र था जिसका नाम चन्दन था । चंदन भी पिता की तरह दयालु स्वभाव का था । उसकी दया की सुगन्ध चन्दन की सुगन्ध की तरह चारों ओर फैल रही थी । माता-पिता उस सुगन्ध में सरोबार हो रहे थे । परिवार सुख से जीवन व्यतीत कर रहा था। एक रात्रि में चन्दन ने भयानक स्वप्न देखा तो देखते ही घबरा गया, उसके मुँह से चीख निकल गई । उसकी चीख सुनकर उसके पिता ने धैर्य बंधाते हुए पूछा - आज तुम्हारे मुँह से चीख क्यों निकल पड़ी, क्या बात हुई। "पिताजी ! मैंने आज बहुत बुरा स्वप्न देखा - इसी कारण मैं चीख पड़ा ।" कौनसा भयानक स्वप्न देखा है । मुझे भी तो बताओ । चन्दन ने बताया - आपकी मृत्यु हो गयी और जितनी भी सम्पत्ति थी वह नष्ट हो गयी, अल्प समय में ही मेरी स्थिति दयनीय हो गई । इस प्रकार के भयावह स्वप्न हो देखकर मेरा मन कराह उठा । पिता ने धैर्य बँधाते हुये कहा- "बेटा! कैसी भी परिस्थिति हो अथवा सामने आ जाए तो भी तू धैर्य मत खोना, सफलता तेरे चरणों में लौटेगी ।" पिता के साहसयुक्त बातों को सुनकर चन्दन उस समय तो आवश्स्त हो गया पर मन की धडकन कम नहीं हुई । एक दिन अचानक सेठ मदनलाल का स्वर्गवास हो गया । चन्दन पिता की मृत्यु के गम से ऊबर भी न पाया था कि एक दिन प्रातःकाल ज्यों ही वह बिस्तर छोड़ कर उठा तो उसकी दृष्टि भीतर के कमरे में गई, उसी समय चिल्ला उठा माँ! भीतर के कमरे में आग लग गई, न मालूम कब से लगी है । माल जलकर राख हो गया है आग बुझा दी गई । व्यापार में हानि होने लगी। वर्षों से काम कर रहे मुनिमों और नौकरों ने विश्वासघात कर सारा धन हड़प लिया । चन्दन के उदास चेहरे को देखकर मां ने धैर्य बँधाते हुये कहा - "बेटा ! घबराओ मत । कसौटी सोने की होती है, कथीर की नहीं । मानव जीवन संघर्षों के बीच ही व्यतीत होता रहता है । अपने शुभदिन समाप्त हो चुके हैं । इसलिये प्रत्येक कार्य भी सफल नहीं हो पा रहे हैं । तुम अपने पुरुषार्थ में लगे रहो । एक दिन ये दुर्दिन भी नहीं रहेंगे। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 47 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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