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________________ MA श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था वह थका हुआ था और भूख के कारण पेट की आंते कुड़मुड़ा रही थी तथा निराशा और खेद का उसके मन पर गहरा प्रभाव था । वह उसी समय वहाँ से चल दिया और नगर के बाहर आ गया । वहाँ एक सरकारी बगीचे में वृक्ष की छाया में बैठ गया और अपने भाग्य को कोसने लगा । पर पेट में चूहे दौड़ रहे थे । पास में फूटी कोढ़ी भी नहीं थी कि चने लेकर खा ले । अकस्मात उसकी दृष्टि एक बेर के वृक्ष की ओर आकर्षित हुई । उसमें पके हये बहुत से बेर के फल लगे थे । वह उठा और उसने बेर गिराने के लिये पत्थर फेंका तो कुछ दूरी पर बैठे हये राजा को जा लगा । राजा आराम से बैठा हुआ वायु सेवन कर रहा था । सेठ को यह पता नहीं था । पत्थर लगते ही रंग में भंग हो गया । नौकर चाकर यह देखने के लिये दौड़े कि महाराज को पत्थर मारने वाला कौन है? राजा के नौकरों ने सेठ को पकड़ कर राजा के सामने उपस्थित कर कहा- अन्नदाता! इस परदेशी ने पत्थर फेंका था । राजा की दृष्टि पड़ते ही वह सेठ थर-थर काँपने लगा । राजा ने पूछा - परदेशी ! तुमने मेरे ऊपर पत्थर क्यों फेंका? सेठ ने कहा - अन्नदाता! मेरी बात ध्यान से सुन लीजिए और फिर जो इच्छा हो दण्ड दे दीजिये । राजा ने उसे अपनी बात कहने की स्वीकृति दे दी और सेठ ने आदि से अन्त तक की कहानी सुनाकर कहा - अन्नदाता ! मैंने आपको लक्ष्य करके पत्थर नहीं मारा था । आप यहाँ हैं, यह भी मुझे ज्ञात नहीं था । ऐसी शरारत करने का कोई प्रयोजन भी नहीं था । यह मेरी सत्यता है | अब महाराज श्री की जो इच्छा हो वही करें । सेठ की बात सुनकर राजा के हृदय में सहानुभूति जाग्रत हुई । उसने मन ही मन विचार किया - इसका फेंका हुआ पत्थर यदि वृक्ष को लगा होता तो इसे फलों की प्राप्ति होती और इसकी भूख मिट जाती मगर वृक्ष के बदले पत्थर मुझे लगा है । मैं राजा हूँ, क्या वृक्ष से गया बीता सिद्ध होऊँ इसे दण्ड दूं? नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिये, इसने जान बूझ कर तो मुझे मारा नहीं अचानक मेरे ऊपर आ गिरा है, इसे अच्छा ही फल मिलना चाहिये । इस प्रकार सोचकर राजा ने उससे कहा - अच्छा परदेशी मैं समझ गया कि तुम निर्दोष हो और तुम्हारी स्थिति अत्यन्त दयनीय हैं । जाओ मैं तुम्हें दस हजार रुपये देता हूँ । इनसे अपनी आजीविका चलाना और आराम से रहना । सेठ पुरस्कार की राशि लेकर जब पुनः नगर में आया और यह घटना जब उसके बहिन बहनोई को मालूम हुई तो वे उसके पास आए और बोले - वाह! आप जरासी बात पर नाराज होकर घर से चले आए ऐसा भी कभी होता है? आपको घर चलना ही पड़ेगा, वह घर आपका ही तो है । बहिन और बहनोई के आग्रह को वह टाल न सका । उनके घर गया, उसे स्नान करवाया गया, बढ़िया वस्त्र पहनने को दिये गये और उत्तम भोजन करवाया गया । पर सेठ के कलेजे में बहिन के व्यवहार से जो आघात लगा था, वह ठीक न हो पाया, सेठ सोचने लगा - यह सत्कार मेरा नहीं, सम्पदा का है । स्वार्थी संसार में मनुष्य का नहीं, सम्पत्ति का मूल्य हैं । मैं वही का वही हूँ मुझमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, किन्तु इन रुपयों ने कितना परिवर्तन कर दिया । आशय यह है कि पुण्य का उदय होने पर शत्रु भी मित्र बन जाता है । ॐ पुण्य का खेल किसी नगर में एक सेठ रहता था । उसके एक ही लडका था, पर वह पुण्यशाली था । पन्द्रह बीस वर्ष की आयु तक कभी उसका सिर भी नहीं दुःखा । लड़का अपनी दुकान पर बैठा हुआ सोचा करता दुनिया के कितने ही लोग मेरी दुकान पर आकर बैठते हैं । कोई कान का दर्द बतलाता है, कोई सिर दर्द का रोना रोता है तो कोई पेट की कहानी सुनाता है । पर मुझे तो अपने जीवन में किसी भी बीमारी का मुंह नहीं देखना पड़ा । देखना चाहिये कि रोग की पीड़ा का स्वाद कैसा होता है? लड़के ने अपने मुनीम से कहा मुनीमजी ! ऐसा कोई उपाय बताओ कि मुझे भी कोई दुःख उत्पन्न हो । मुनीम ने कहा - बाबू साहब ! आप को दुःख देखने की इच्छा क्यों हुई? आप तो पुण्य लेकर आए हैं, इसलिये सुख का आनन्द लीजिए । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 29 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ducation
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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