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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ समाप्त हो गयी। इस तरह जब तक संत मंडल वहाँ रहा वह प्रतिदिन आकर भजन सुनता एक दिन उसका विवेक जागृत हुआ और एक रात उसने पुरुष वेष में आकर साधुओं को साष्टांग प्रणाम किया तथा बड़ी नम्रतापूर्वक उनसे प्रश्न किया-प्रभु मैं एक अपवित्र व्यक्ति हूँ, मेरा निवास पीपल के इस वृक्ष पर है में नित्य दो-चार बच्चों को अपना भोजन बना लेता हूँ । कभी भूले भटके कोई पथिक इधर आ जाये तो वह भी मेरा भोजन बन जाता है। जब आप यहाँ आये तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि दो-चार दिन का भोजन तो स्वतः ही आ गया है, पर प्रतिदिन आपके मुखारविन्द से प्रभु नाम को सुनकर मेरे विचारों में परिवर्तन आने लगा है। देव मुझे यह योनि क्यों मिली ? बताने की कृपा करें। उन साधुओं ने उसे उनके गुरु के पास भेज दिया । गुरुवर उसके पूर्व भव को जान चुके थे और सारा वृतान्त भी उन्होंने सुन लिया था । भूत ने गुरु के चरणों में जाकर अपना शीश रख दिया और सिसकते हुये निवेदन किया गुरुवर! बतायें, मुझे यह योनि क्यों मिली? गुरु ने तो पहले ही ज्ञान के द्वारा उसका पूर्वभव मालूम कर लिया था। फिर भी समाधिस्थ होकर चिंतन किया। तत्पश्चात् आँखें खोलकर बोले सुनो तुम पूर्वभव में बड़े क्रोधी थे। बात बात में किसी को मार देना तुम्हारे लिये आसान बात थी । एक बार तुमने क्रोध में आकर दुधारू गाय को मार दिया । उसके बच्चे दूध के लिये तरसने लगे । भूखे मरते हुये उन्होंने तुम्हें शाप देकर दमतोड़ दिया । फलस्वरूप तुम्हें यह नरक योनि प्राप्त हुई । क्रोध राक्षस के समान है क्रोधी मनुष्य कभी सुखी नहीं रहता । संत की वाणी सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गये । पुनः वह बोला- प्रभु, इस योनि से मुक्ति का उपाय बताइये | लोगों को सताना छोड़कर सबके साथ सद्व्यवहार करों । जिन बच्चों को तुम अपना भोजन बनाते हो, उन्हें प्यार दो, बच्चे भगवान का रूप होते हैं। गोमाता की पूजा करो। सत्कर्म से दुष्ट से दुष्ट आत्मा की भी मुक्ति हो जाती है । इतना कहकर गुरु महाराज समाधि में लीन हो गये । संत प्रवर के बताये मार्ग को अपना कर भूत को भूत योनि से मुक्ति मिल गई । 3 करनी का फल एक समय दो मित्र धन कमाने की इच्छा से अन्य नगर में गये। दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी और प्रेम के साथ रहते थे । दोनों ने खूब धन कमाया । दोनों ने परस्पर विचार किया धन कमाने की इच्छा लेकर हम दोनों घर से निकले थे । यह इच्छा पूरी हो गई है। अब लौट कर अपने घर चलना चाहिये और बाल बच्चों की देख-रेख करनी चाहिये । इस प्रकार विचार कर दोनों ने अपनी पूंजी से जवाहारात खरीदे और एक ऊँट खरीदकर अपने नगर की ओर प्रस्थान किया । होनहार बलवान होती है । मार्ग में उनमें से एक की बुद्धि बिगड़ गई । उसने सोचा-नगर में कोई धनवान नहीं हैं। अतः हम दोनों लखपति कहलायेंगे। दोनों के पास बराबर धन है, अतः दोनों का एक जैसा मान सम्मान होगा ऐसा होने पर मेरी क्या विशेषता रहेगी? यदि मैं अपने साथी को मार डालूँ तो इसका धन भी मुझे मिल जाएगा और नगर में मैं अकेला ही लखपति होने की प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर लूँगा । ऐसा दुष्ट विचार आने पर उसने अपने साथी से कहा - भाई मुझे तो प्यास लगी है पानी चाहिये । दूसरे ने कहा यहाँ चोरों का ठिकाना है । इस स्थान को शीघ्र ही लाँघ जाने में कल्याण है । चले चलो, आगे पानी पी लेना । Jain Education International हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति 24 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति sanely
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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