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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ । 1 प्रातः काल होने पर राजा खजाना देखने गया । देखते-देखते सारा दिन व्यतीत हो गया और रात्रि भी हो गयी पर खजाना पूरा नहीं देख सका । दो-तीन दिनों में उसने पूरा खजाना देखा देखकर वह सोचने लगाभण्डार में बहुत द्रव्य हैं। अब प्रजा पर कोई नया कर नहीं लगाऊँगा और जनहित के कार्य स्कूल, धर्मशालाएँ बनवाऊँगा तथा रोगियों के लिये नए चिकित्सालय खुलवाऊँगा, जिसमें असाध्य बीमारियों का भी उपचार हो सके। गरीबों से उपचार का, दवाओं का पैसा नहीं लिया जाएगा । | इस तरह राजा ने अपने नीति नियम बना लिये वह नित्य-नये वस्त्र धारण करता, बहुमूल्य आभूषण बनवाता जिस स्वर्णकार से राजा आभूषण बनवाता था, वह राजा का बहुमूल्य मोती आदि अपने पास रख लेता और नकली मोती जड़ देता था । ऐसा करते-करते कई दिन हो गये । एक दिन भंडा फूट गया । स्वर्णकार के घर की तलाशी हुई और माल बरामद हो गया । राजा ने उसे देश से निकालने की सजा दे दी । राजा ने दूसरे स्वर्णकार की खोज करवाई पर कोई ईमानदार स्वर्णकार न मिला । तब राजा ने अपने दीवान से कहा • "दीवानजी! मेरे शौक पर पत्थर पड़ गए । नगर में एक भी स्वर्णकार ईमानदार नहीं है। दीवान ने कहा"राजन् ! सब धान बाईस पंसेरी नहीं तुलते । सब बेईमान नहीं है । मैं ईमानदार स्वर्णकार खोज लाऊँगा ।” दीवान ने खोजबीन की तो वही लड़का जिसका नाम सुशीलचन्द्र था, दीवान को ईमानदार लगा । वह उसे राजा के पास ले गया। राजा ने पूछा " लड़के ईमानदारी से काम करेगा?" लड़के ने अपने द्वारा ली हुई प्रतिज्ञाएं दोहरा दी। राजा उसकी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने इस लड़के से आभूषण बनवाने का काम शुरू किया, और सौ के बदले दो सौ और दो सौ की जगह चार सौ पारिश्रमिक देने लगा । लड़के की आर्थिक स्थिति एकदम स्तरीय होने लगी । दूसरे स्वर्णकारों ने देखा कि लड़का राज स्वर्णकार हो गया है, और शीघ्र ही धनी बन जाएगा । अतएव वे उसे अपनी लड़की देने की सोचने लगे । राजा को मालूम हुआ तो उसने स्वयं आगे रह कर खानदानी सुशील कन्या देख कर उसकी सगाई कर राजा की देखरेख में विवाह कर दिया । लड़के की तीन प्रतिज्ञाओं ने उसे सांसारिक दृष्टि से भी पूर्ण सुखी बना दिया । 3 गुरु की शिक्षा एक युवक को अपने पूर्व उपार्जित पुण्य से अपने अनुकूल परिवार का समागम प्राप्त हुआ था। उसके ऊपर उसका अत्यन्त प्रेम था। परिवार का उसके ऊपर अपार प्रेम था । यदि उस युवक के सिर में दर्द होता, तो संपूर्ण परिवार दुःखी हो जाता । वह युवक एक दिन गुरु के दर्शन करने गया और दर्शन करके जब गुरु के समक्ष बैठा तो गुरु ने पूछा - " वत्स! बहुत दिनों से तू यहाँ नहीं आया, कहाँ गया था? युवक ने कहा - "गुरुदेव ! क्या करूँ? मेरे माता-पिता पत्नी का मुझ पर इतना प्रेम है कि वे मुझे बाहर नहीं जाने देते ।' गुरु ने कहा तू पहले नित्य आता था, पर अब क्या हो गया? युवक ने उत्तर दिया कि मेरा पुत्र, पत्नी आदि मेरे साथ बहुत प्रेम रखते हैं । यदि मैं कहीं बाहर जाता हूँ, तो लौटने तक मेरी चिन्ता करते हैं, मैं समय पर घर नहीं पहुँचता हूँ तो दुःखी होते हैं । अतः गुरुदेव ! मैं आपके पास नहीं आ सका । यह मेरा दुर्भाग्य है । युवक की बात सुनकर गुरु ने कहा- तुझे जब दुःख होता है तो क्या तेरा परिवार दुःखी होता है । यदि तुझे पीड़ा हो तो उस दर्द में भी कोई भागीदार हो सकता है । यह भी तूने कभी विचार किया? उसमें भाग लेने के लिये कोई भी तैयार नहीं होगा। सभी स्वार्थ के साथी हैं । तुम अपने माता-पिता, पत्नी, बच्चे आदि का पालन करते हो, पर गुरु जो बात कहे उसका पालन अवश्य करना । हमेला ज्योति ज्योति 20 हेमेन्द्र ज्योति ज्योति ainelibr
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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