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________________ जैन संस्कृति में यति क्रांति के कारण त्रिस्तुतिक समाज ने अपूर्व योग देकर प्रवाह को मोड़ा है । यतियों में शिथिलाचार बढ़ गया था । देवी-देवताओं की उपासना के कारण व्यक्ति वीतराग तक की अवेहलना करने लगा था । यति अपने चारित्रमार्ग से विचलित हो चुके थे । स्व-पर कल्याण की भावना भौतिक सुख-समृद्धि एवं रागरंग में भ्रमित होती जा रही थी । ऐसी परिस्थति में त्रिस्तुतिक सिद्धान्त के प्रतिपादन ने मिथ्यात्व की कालिमा को चीरकर रख दिया । इस मान्यता का संघर्ष केवल प्रतिक्रमण से एक स्तुति को हटा देने का नहीं था वरन् शुद्ध क्रियाकलापों व आत्मोन्नति के मार्ग के कंटकों को दूर करने एवं दोषों को विस्थापित करना था । उस काल के यति समाज की दुर्दशा का आकलन तो उस कलमनामे से हो सकता है जो श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा परिस्थितिवश हस्ताक्षरित किया गया था। इस पर अन्य नौ यतिगणों के हस्ताक्षर भी हैं । यह कलमनामा ऐतिहासिक दस्तावेज है । त्रिस्तुतिक सिद्धांत को इस कारण बाट ाओं का सामना भी करना पड़ा है । त्रिस्तुतिक सिद्धांत की गंभीर गर्जना स्व. गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने की थी। श्रीमद् धरणेन्द्र सूरिजी के शिथिलाचार को, अपने शुद्ध क्रिया का पालन करते हुए समाप्त किया, भौतिक सुख-समृद्धि के प्रतीक चिह्नों व वस्तु तत्वों को दूर करने का कार्य किया । यति समुदाय के हस्ताक्षरों से तैयार किये गये कमलनामे का दस्तावेज श्रीमद् राजेन्द्र सूरिजी की क्रांति जाग्रति के कारण ही था । उनके द्वारा त्रिस्तुतिक सिद्धांत उद्भाषित हो आराधना पथ के प्रवासी उपकृत हुए। वे शलाका पुरुष थे । अपने जीवन में सभी उपाधियों को त्याग कर क्रियोद्धार की ओर बढ़ते हुए परिमार्जित साध्वाचार का उद्घोष किया । विविध प्रतिभाओं के धनी, संघ संचालन में अप्रतिम दक्षता, निष्णात दार्शनिक विचारक, युग प्रधान व्यक्तित्व से महिमामंडित थे श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी। श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने जीवन भर आत्मकल्याण की संज्ञाओं की तलाश में बिताया । जैन संस्कृ ति को कुंठित अवधारणाओं से मुक्त कर देव, गुरु और धर्म के सही स्वरूप को सबके सामने रखा। तपाराधना एवं यौगिक क्रियाओं से उनका प्रभामंडल अत्यंत तेजस्वी और जाज्वल्यमान बन गया । श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी में ऐसी ऊर्जा विकसित होती थी जिसने मानव को जीवन के अंतर में गोते लगाने के लिये प्रेरित किया । उनने जिन मुद्रा में दीर्घ समय तक शरीर को स्थिर कर जप व ध्यान किया । पंच परमेष्ठि में आपकी अडिग श्रद्धा का यह जीवंत प्रमाण है। श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने तर्क संगत सिद्धांत व सत्याचरण पर नैष्ठिक जोर दिया तथा क्रिया पालन में अद्भुत कठोरता दिखाई । इसी कारण आपके अनुयायी वर्ग की पृथक पहचान तैयार हो गयी । त्रिस्तुतिक सिद्धांत भी आपका कोई नया अविष्कार नहीं था । अंधविश्वास एवं आत्मसंकल्पहीनता के विरूद्ध उनका संघर्ष था । त्रिस्तुतिक समाज का पूर्ण नाम श्री सौधर्म वृहत्पागच्छीय त्रिस्तुतिक श्वेताम्बर जैन संघ है । स्पष्टतः त्रिस्तुतिक संघ की पट्टपरंपरा का श्री गणेश श्री सुधर्मा स्वामी से है । उनके पट्ट पर क्रमशः www.jainelibrary.org.
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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