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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ....... सम्वत् 1955 फाल्गुण वद 5 दिन के 951 जिन बिम्बों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव एक अलौकिक था। अंजनशलाका एवं फलेचुनरी का लाभ बाफना मुथा जसरूपजी जीतमलजी परिवार वालों ने लिया था । ऐसा अलौकिक अंजनशलाका महोत्सव आज दिन तक नहीं हुआ, जिसका श्रेय परम श्रेष्ठ परम पूज्य योगीन्द्राचार्य कलिकाल कल्पतरु आचार्यदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के चारित्रबल के ही प्रताप को था । सम्वत् 1996 महासुद 7 के दिन आचार्य श्री भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का स्वर्गवास यहीं हुआ, जिनका समाधि मंदिर आज भी गोडीजी के मंदिरजी के पीछे बगीचे में है । सम्वत् 1995 वैशाख सुद 10 को परम पूज्य आचार्यदेव श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को आचार्यपद व उपाध यायजी श्री गुलाबविजयजी महाराज को अष्टान्हिका महोत्सव सहित पदवियाँ प्रदान की गई । यहां पर और भी मुनिराजों व साध्वी भगवंतों का दीक्षोत्सव एवं स्वर्गगमन हुआ । मुझे परम पूज्य आचार्यदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का सेवा में पालीताणा राजेन्द्र विहार में अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव, राजेन्द्र जैन भवन में प्रतिष्ठा महोत्सव श्री मोहनखेडा में श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी महाराज के समाधि मन्दिर की प्रतिष्ठा एवं भगवान की प्रतिमाओं की अंजनशलाका श्री शंखेश्वरजी में पार्श्वपद्मावती पीठ की अंजनशलाका में व राजेन्द्र भवन पालीताणा में चार्तुमास में उनके निकट रहकर सेवा करने का बहुत अवसर मिला हैं । उनकी मृदुता व सरल स्वभाव चारित्र पालन में बहुत ही क्रियाशीलता देखी है । उनको भगवान शतायु प्रदान करावे । उनको मेरी कोटि कोटि वंदना । उत्तम विवेकमय मार्ग सहज ही प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिये सर्व प्रथम इन्द्रियविकारों, स्वार्थपूर्ण भावनाओं और संसारियों के स्नेहबन्धनों का परित्याग करना पड़गा, तब कहीं विवेक की साधना में सफलता मिल सकेगी। कईएक साधक समझदार हो करके भी इन्द्रियों और पाखंडियों की जाल में फंसे रह कर अपने आत्म-विवेक को खो बैठते हैं, और वे पाप कर्मो से छूटकारा नहीं पाते। प्राणीमात्र लोभ और मोह में सपड़ाये हुए, साथ-साथ धर्म और ज्ञान को भी मलिन कर डालते हैं। इसलिये आत्मविवेक उन्हीं व्यक्तियों को मिलेगा जो इन दोनों पिशाचों को अच्छी तरह विजय कर लेंगे। जो व्यक्ति क्रोधी होता है अथवा जिसका क्रोध कभी शान्त नहीं होता, जो सज्जन और मित्रों का तिरस्कार करता है, जो विद्वान् हो कर के भी अभिमान रखता है, जो दूसरों के मर्म प्रकट करता है और अपने कुटुम्बी वचन बोलकर संताप पहुंचाता है और जो सबका अप्रिय है वही पुरुष अविनीत, दुर्गति और अनादरपात्र कहाता है। ऐसे व्यक्ति को आत्म-तारक मार्ग नहीं मिल सकता; अतः ऐसा कुव्यवहार सर्वथा छोड़ देना चाहिये। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेगेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 77 हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति auriganted
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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