SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुख-सुविधाओं की बहुतायतता का साधन है जबकि धर्म जीवन के संशोधन का, सुधारने का, संभालने की भूमिका का निर्वाह करता है । जैन शास्त्रों में धर्म को सर्वोत्कृष्ट मंगल माना गया है । धर्म, अहिंसा, संयम तथा तप का समग्र रूप है । जैन धर्म को दयामय, करुणा से परिपूर्ण भी माना गया । जीवन के पथ में धर्म तो शीतल छाया की भांति स्वीकार किया है । धर्म नियंता व नियंत्रक है । मन, वचन, कर्म तीनों को नियंत्रित करने का साधन है धर्म । धर्म पवित्र जीवन पद्धति का एकमात्र संचालक है । व्यक्ति जब भी धर्म संस्कारों के आधार पर अपना लक्ष्य तय करता है तब धर्म भौतिक संसाधनों के त्याग एवं आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ का सोपान बन जाता है । हर व्यक्ति धार्मिक तो हो सकता है किंतु आध्यात्मिक होना, हर व्यक्ति का संभव प्रतीत नहीं होता । आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न होना बड़ी बात है । सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान व सम्यग् चारित्र आध्यात्मिक प्रवृति के बिना संभव नहीं । धर्म को माननेवाले लोगों में भौतिक समृद्धि की कामना, दूसरों से प्रतिशोध की भावना के कुछ न कुछ अंश तो होते ही हैं । जो व्यक्ति आध्यात्मिक होता है वह धर्म का सुचारू रूप से प्रतिपालन करते हुए शुद्ध उद्देश्य निश्चित करता है । जीवन की सार्थकता अध्यात्म प्रवेश में है । सभी चेतन जीवों में मनुष्य जीवन ही ऐसा है जो मुक्ति का अधिकारी बन सकता है । मानव जीवन अलौकिक है, बड़ी मुश्किल से मिला है । मानव शरीर पूर्णतः विकसित एवं बौद्धिक चेतना से संपन्न है । मानव जीवन को यशस्वी रूप में परिणत कर तथा मानव जीवन को भव्य आराधना काल बनाकर किया जा सकता है । कषाय वृत्तियों का त्याग एवं संवर भावना को प्रतिक्षण घटाते-बढ़ाते रहते हैं । रागद्वेष के कारण ही क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे कषायों की सक्रियता जीवन में उथल-पुथल मचाती है । इसके कारण मानव जीवन कलुषित हो जाता है । उसी मनुष्य को परुषार्थी कहा जा सकता है जो अपने मनोविकारों पर अपने आवेगों पर पूर्णतः नियंत्रण रखने में सक्षम हो । धर्म-पुरुषार्थ से आत्मा परमात्मा बन सकती है। मानव व अन्य जीवों में यही फर्क है कि मानव के पास अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने, अपनी दिशा को समझने की बुद्धि है । अन्य जीव अपने जीवन की दिशा निर्धारित नहीं कर सकते, उनके पास विवेक नहीं होता । मानव परम शक्तिमान है । वह सृष्टि पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा में रत रहता है । मानव अपनी निर्धारित दिशा, अपने निर्धारित लक्ष्य से लाभ प्राप्त कर सकता । विवेकपूर्ण लक्ष्य निर्धारण से जो लाभ होता है उससे उसका जीवन सुधर जाता है । विवेक युक्त लाभ का तात्पर्य आध्यात्मिक लाभ है । अन्यथा मानव अपने उलझे हुए जीवन में भटक जाता है र मक्तिमार्ग से बहत दर चला जाता है । मानव अपने जीवन में सदज्ञान और सदविवेक उपयोग करे तो उसका जीवन पवित्र हो जाता है । महापुरुष अपने जीवन को तपस्या की अग्नि में तपा-गला शुद्ध स्वर्ण में बदलने की चेष्टा में लगे रहे । मानव जीवन के प्रत्येक पल को मूल्यवान समझें तथा अपने उद्देश्य की प्राप्ति में यदि अग्रसर हो तो उसका जीवन सफल हो सकता है। Forvena www.jainelibrary.org
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy