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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ X( निष्कपटता : श्रेष्ठता का प्रतीक कस्तूरचंद चौपड़ा परम पूज्य आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरिजी की दीक्षा जब मैं करीब दस साल का था तब महान जैनाचार्य सिद्धर्षि की जन्म स्थली भीनमाल की पावन धरा पर, निर्मल हृदयी महान तपस्वी, एवं विश्ववंद्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी के शिष्य रत्न श्रीहर्ष विजयजी म.सा. के सान्निध्य में हुई थी । दीक्षा ग्रहण करते ही श्री हेमेन्द्र विजयजी म. साहब, अपने गुरु की सेवा हेतु तत्पर रहते थे । उनकी रुचि, स्तवन, सज्झाय, स्तुति व चैत्यवंदन कंठस्थ करने की ओर थी । कंठ इतना मधुर है कि आज भी जब वयोवृद्ध अवस्था में है तब भी प्रतिक्रमण सभा में, स्तवन सज्झाय आदि गाते हैं तो श्रोतागण मंत्र मुग्ध हो जाते हैं । स्वयं आचार्यदेव को इतने स्तवन, सज्झाय स्तुति व चैत्यवंदन याद हैं कि ये इनके विशाल भंडार है । आपका हृदय सरल स्वभावी कपट रहित है । अहंकार छू भी नहीं सकता । तभी हम जब बालक थे तब बालकों के प्रति इनका विशेष स्नेह रहता था । अधिकांश समय बालकों से घिरे रहते थे उन्हें उपदेश देते, मधुर कंठ से स्तवन वगैरा सुनाकर, बच्चों की धर्म के प्रति प्रीति पैदा करते व सिखाते थे । जिससे काफी श्रावकों में धर्म के प्रति आकर्षण व बच्चों में सुसंस्कारों का प्रार्दुभाव हुआ | इन्होंने अपने जीवन में कई तपस्याएं की, एवं चुस्त चारित्रमय जीवन लगातार व्यतीत करते आ रहे हैं । आज लगभग अस्सी साल के लगभग आयु होने पर भी अपनी क्रियाओं में शारीरीक अशक्ति होने पर भी शिथिलता का प्रवेश नहीं हो पाया। भोले स्वभाव के महान योगी अपने गुरु श्रद्धेय श्री हर्षविजयजी की सेवाओं से अन्तर्मन से आशीर्वाद प्राप्त होता रहा। श्री हेमेन्द्र विजयजी म. साहब, गुरुसेवा तपस्या अखंड जाप व भजनों में तल्लीन होने से व्याख्यान बहुत कम देते थे । पद की लिप्सा नहीं था । परन्तु जब पूज्य दिवंगत आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरिजी देवलोक हो गये, तब हेमेन्द्र विजयजी की तपस्या सरल हृदयता व गुरुभक्ति से प्रभावित होकर श्री सकलसंघ ने आचार्य पद से विभूषित किया । निष्कपट सरल हृदयी पद की अभिलाषा नहीं रखते हैं, तो भी उन्हें श्रेष्ठ पदों पर आसीन होना पड़ता है। पूर्व में भी पूज्य श्री यतीन्द्र सूरिजी की अथक सेवा मुनिराज विद्याविजयजी ने की थी एवं सरल हृदयी भी थे, इनसे विद्वान पूज्य दावेदार भी थे परन्तु इनके, जाप तपस्या, निष्कपटता के परिणाम स्वरूप सकलसंघ ने इन्हें ही आचार्य पद प्रदान किया । जब श्री हेमेन्द्रसूरिजी ने आचार्य पद ग्रहण किया था तब कुछ लोगों की धारणा थी कि ये कम पढ़े लिखे है शासन नहीं संभाल सकेंगे । परन्तु आचार्य की समयावधि 17 साल में इन्होंने, अद्वितीय सफलता पूर्वक कई प्रतिष्ठाएं उपधान तप, छरिपालक संघ, नव्वाणु, सामूहिक चौमासे एवं पुण्य धार्मिक समारोह करवायें । श्री सुमेरमलजी लुंकड़ के पालीताणा में कराये गये लगभग 700 व्यक्तियों के चातुर्मास में श्री हेमेन्द्रसूरिजी ने अपनी अद्वितीय प्रतिभा का परिचय दिया । जिससे कई अन्य दिग्गज जैनाचार्य प्रभावित हुए एवं उन्होंने इनसे संपर्क साधा । लोगों में धारण हो गई कि इन्हें वचन सिद्धि हो गई । इस कारण लोग इनसे सम्पर्क करने व दर्शन करने हेतु लालायित रहते हैं । आचार्य बनने पर अमुक कार्य अपने हाथ से नहीं करना । बैठे बैठे प्रतिक्रमण करना आचार्य की शान में गिना जाता है । परन्तु श्री हेमेन्द्रसूरिजी अपना सम्पूर्ण कार्य अपने हाथ से करते है और अस्वस्थता नहीं हो तो प्रतिक्रमण की क्रियाएं खडे खड़े करेगे जो शिथिल मुनिराजों के सीखने के लिये एक आदर्श हैं । हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 66 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति Ju liusepp
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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