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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ज्योतिष व गणित के अच्छे जानकार थे । संवत 1893 में आहोर में श्री प्रमोदविजय जी को आचार्य पद प्रदान कर वही स्वर्गवासी हुए । 67 वें आचार्य विजयप्रमोदसूरि शास्त्र-लेखन के आग्रही व सिद्धहस्त थे साथ ही साधु क्रिया के प्रति सदैव जाग्रत रहते थे । प्रमोदसूरि ने अपने एक शिष्य धरणेन्द्रविजय को आचार्य पद प्रदान कर दिया था मगर इनमें तथा साधुवर्ग में अत्यधिक शिथिलाचार व संग्रह-प्रवृति विकसित हो चुकी थी । जब समाज में इस प्रकार की विकृतियां आती है तो बदलाव व शुद्धिकरण अवश्यसंभावी होता है । तपागच्छ की इस धारा में वह समय आ चुका था । इस परिवर्तन व क्रान्ति के नायक बने – श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जिनके योगदान को जैनधर्म कभी नहीं भुला सकता । श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि का जन्म संवत 1883 की पौष शुक्ल सप्तमी को भरतपुर में हुआ था । आपने संवत 1904 में श्री प्रमोदसूरि के ज्येष्ठ गुरुभ्राता श्री हेमविजयजी से दीक्षाव्रत लेकर मुनि रत्नविजय नामाकरण प्राप्त किया व जैनागमों का गहन अध्ययन किया । अपने गुरु, जिनको श्रीपूज्य कहा जाता था, के निर्देशन पर उन्होंने संवत 1914 से 1919 तक श्री धरणेन्द्रसूरि तथा अन्य यतियों को विद्याभ्यास कराया । इसी मध्य श्री धरणेन्द्रसूरि साध्वाचार से विमुख होते चले गये । श्रावक वर्ग भी इनके क्रियाकलापों से नाराज था । अंततः श्री प्रमोदसूरि ने संवत 1924 में आहोर में आपको श्रीपूज्य पद प्रदान कर श्रीपूज्य श्री विजयराजेन्द्रसरि नामाकरण प्रदान किया । आपके बढ़ते प्रभाव को देखकर यति समुदाय ने अन्त में आपके द्वारा निर्धारित शास्त्रोक्त समाचारी को स्वीकार किया। संवत 1925 की आषाढ़ शुक्ल 10 को जावरा में आपने परिग्रह का त्याग किया व क्रियोद्धार कर सच्चा साध्वाचार ग्रहण किया । यह कदम यति परम्परा का संवेगी परम्परा में रूपान्तरण का कदम था । श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि जैनागमों तथा इतर साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों का सजन किया। श्री राजेन्द्र अभिधान कोश आपकी विश्वप्रसिद्ध व विशाल कृति है । सूरिजी ने साहित्य संरक्षण के लिए कई ज्ञान भण्डारों की स्थापना की। प्राचीन देवालयों का पुनरोद्धार व नवीन जिनालयों व प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। आपने संवत 1925 के खाचरोद के चार्तुमास में प्राचीन त्रिस्तुतिक मान्यता को पुनः प्रकट किया जो विद्वानों व श्रावकों के मध्य चर्चा व विवाद का विषय बना । आपने अपने शास्त्र सम्मत अकाट्य तर्कों से इस मान्यता को विचारों व क्रियाओं में पुनःस्थापित किया । अतः आपके अनुयाइयों को त्रिस्तुतिक कहां जाता है। श्रीमद राजेन्द्रसूरि एक चमत्कारी आचार्य थे । इनके चमत्कारों के कई प्रसंग उनके अनुयाइयों में लोकगाथाओं की भांति प्रचलित हैं । आपने मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों में भ्रमण कर जैन मान्यताओं का प्रचार प्रसार किया । आपने अनेक शिष्य - शिष्याओं तथा विशाल श्रावक समुदाय को नेतृत्व प्रदान किया । अपने संगठन कौशल से समाज में एकता व भाई चारा पैदा किया। संवत 1963 की पौष शुक्ल षष्ठम की संध्या को राजगढ़ में आपका स्वर्गवास होगया । अगले दिवस आपके ही द्वारा स्थापित मोहनखेड़ा मंदिर के प्रांगण में आपका अंतिम संस्कार किया गया जो अब एक विशाल तीर्थ बन गया । प्रतिवर्ष लाखों अनुयायी इस पुण्यभूमि पर आराधना व दर्शन हेतु आते है । श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिजी की परम्परा ही सौधर्मवृहत्तपागच्छ कहलाती है । श्री राजेन्द्रसूरिजी के पश्चात श्री धनचन्द्रसूरि भगवान महावीर की परम्परा के 69वें तथा इस सौधर्म वृहत्तपागच्छीय परम्परा के द्वितीय आचार्य बने । आपने श्रीलक्ष्मीविजयजी से संवत 1917 में यति दीक्षा ली थी व श्री रत्नविजयजी (श्री राजेन्द्रसूरि जी) के पास शिक्षण हेतु गये थे । संवत 1925 में आपने श्री राजेन्द्रसूरि से साधु दीक्षोपसंपदा ली । इसी वर्ष आपको उपाध्याय पद व 1966 में आचार्य पद दिया गया । आप अच्छे साहित्यकार थे । आपने लगभग 25 पुस्तकों की रचना की थी । संवत 1977 भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा को बागरा में आपका स्वर्गवास हो गया । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 11 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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