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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ११य आपकी नियमित जीवन चर्या में आप पूर्ण स्वस्थ रहे, पावन रहे । आपके दीर्घायु जीवन का यही रहस्य है। आप हमेशा संयम व नियमों के अन्तर्गत रहे । परम पूज्य गुरुदेव के निष्कपट व्यवहार ने सभी के साथ प्रेमभाव व अपनत्व ने आपको साधारण कोटि के मानव से हटाकर उच्च कोटि की असाधारण व अलौकिक कोटि के मानवों में स्थापित किया । धन्य हो गुरुदेव ! आपकी जीवन प्रणाली सदैव सादगी पूर्ण रही व आज भी वैसा ही आचरण कर रहे हैं | श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के प्रति समर्पित भाव ने आपको इस असाधारण स्थान पर बैठाया । मानों प्रकाश का पुज स्वयं ही प्रकाशित हो रहा हो आलौकित हो रहा हो । आपने न सिर्फ साधुपद बल्कि सूरिपद को भी महिमा मंडित किया । सूरिपद पर होते हुवे आपके निरअभिमानी व्यवहार ने धर्म के क्षेत्र में अग्रणी स्थान पर पहुंचाया । राष्ट्रसंत शिरोमणि गुरुदेव धन्य हो । धन्य हो पूज्य गुरुदेव के जीवन में वीतराग भाव परिलक्षित रहा । पूज्य गुरुदेव की किसी भी वस्तु या चीज में आसक्ति नहीं रही । मोह नहीं रहा । आप हमेशा निर्मोही भाव में रहे, धन्य हो गुरुदेव। इस तरह आपका जीवन अनन्त गुणों का भण्डार है । अन्त में इतना ही लिखना चाहूंगा कि आप गुणों के भण्डार है साक्षात है दयालु है धर्मात्मा हैं । परम पिता परमात्मा से यही प्रार्थना है कि आप दीर्घायु रहें निरोग रहे और समाज को समय समय पर आपका मार्गदर्शन मिलता रहे । इसी आशा के साथ परम पूज्य हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को कोटि कोटि वन्दन करता हूं। अभिनन्दन करता हूं। अविस्मरणीय स्मृतियां -रमेश रतन राजगढ़ (धार) आचार्यदेव श्रीमदविजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जन्म अमृत महोत्सव एवं दीक्षा हीरक जयंती के अवसर पर प्रकाश्यमान अभिनन्दन पर कुछ लिखते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है । आज से लगभग 38 वर्ष पूर्व सन् 1962 में जब गुरुदेव का मालवा में पदार्पण हुआ, उस समय गुरुदेव का चातुर्मास मुनि विद्याविजयजी महाराज के सान्निध्य में मालवा के सबसे बड़े नगर इन्दौर में था । उस समय मैं एक छात्र की हैसियत से अपने 15-20 साथियों के साथ परीक्षा देने इन्दौर गया था । इसके पहले मेरा इन्दौर जाने का कभी काम नहीं पड़ा था। जैसे ही इन्दौर नगर के धरातल पर बस रूकी, हम सब अपना सामान उतारने में व्यस्त थे । मैने भी बस के ऊपर से अपना सामान उतारा तो नीचे आकर देखता हूं कि मेरे सब सहपाठी मुझे अकेला छोड़ कर चले गये। मैंने हिम्मत नहीं हारी और एक तांगे वालें से बात की । तांगे वाले अब्दुलकरीम ने एक रुपये में धर्मशाला ले चलने की बात कहीं । मैंने हाँ भर दी । वह मुझे इन्दौर नगर की 6-7 धर्मशाला में ले गया । लेकिन कहीं भी जगह नहीं मिली । अंतः वह अन्तिम धर्मशाला जो खजूरी बाजार में थी मेरा सामान उतार कर चला गया । मैंने अपना सामान उठाया और धर्मशाला में प्रवेश किया । मुनीमजी से ठहरने की प्रार्थना की । लेकिन धर्मशाला में जगह नहीं होने से मुझे वहां भी निराश होना पड़ा । सामान वहां रखकर मैं बाहर आया । मैंने सोचा दो-ढाई बज गये हैं । पहले पेट पूजा की जाए । मैं पास की एक गली में गया वहां 5 आने में भोजन किया । वहां से चला । मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । क्या करूं कहां जाऊँ? एक स्वच्छ स्थान पर बैठ गया । नवकार मंत्र का स्मरण किया । अचानक मुझे मेरे पापा की कही बात याद आ गई । एक बार मेरे पापा ने कहा था । इन्दौर में गुरु राजेन्द्र उपाश्रय भी है । मैं उठा और चल दिया । मुझे उस गली में एक मन्दिर दिखाई दिया। मैंने वहां जाकर पुजारी से राजेन्द्र हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति 51 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति dicati www.jamelibrary.com
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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