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________________ 47 श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज मेरी दृष्टि में के समान अंकरित हो गई। और वह कल्प-बेल पुष्पित होकर अक्षय सुगन्ध से उसके जीवन को सुवासित करने लगी। फलस्वरूप विरक्त किशोर छगन ने वि. सं. 1944 (गजराती 1943) वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को परम पूज्य न्यायाम्भोनिधि आचार्य श्री के करकमलों द्वारा राधनपर (गजरात) में दीक्षा ली। उनका मुनि नाम बल्लभ विजय रखा गया। उस समय उनकी आयु केवल सत्रह वर्ष की थी। वे मुनिराज श्री हर्षविजय जी के शिष्य हुए। अपने गुरू के चरण-कमलों में बैठकर उन्होंने जैन दर्शन एवं अन्य दर्शनों का विशद अध्ययन किया। मुनि पुंगव श्री हर्ष विजय जी म. सा. वि. सं. 1947 चैत्र शुक्ला 10 (दिनांक 21 3-1890 ई.) में स्वर्गवासी हो गये। तत्पश्चात मनि श्री वल्लभ -डा. जवाहरचन्द्र पटनी विजय जी महाराज ने प. पू. न्यायाम्भोनिधि आचार्यदेव के सान्निध्य में काव्यशास्त्र, आगम-शास्त्र आदि का गहन 30 अक्टूबर 1987 का मंगल-प्रभात मेरे लिए एक जन्म गुजरात प्रान्त के बड़ौदा नगर में वि. सं. 1227 कार्तिक अध्ययन किया। वे विद्याविभूषित होकर फलों से लदे हुए आम्रतरू सर्वोत्तम उपहार लेकर आया। उस दिन जोधपुर विश्वविद्यालय शुक्ला द्वितीया (भाई दूज) को जैन श्रीमाली कुल में हुआ था। के समान झुक गये-विनम्र हो गये। "विद्या ददाति विनयम" की ने मुझे मेरे शोधप्रबन्ध'कलिकाल कल्पतरू श्रीमद् वल्लभ सूरि उनके पिता श्रेष्ठ दीपचन्द भाई एवं माता इच्छाबाई के धार्मिक उक्ति उनके जीवन-दर्शन में सार्थक हो गई। जी की कृतियों में काव्य, संस्कृति और दर्शन' पर पी.एच.डी. की संस्कारों ने बालक छगन पर अमिट छाप छोड़ दी। अत्यन्त न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य श्रीमद् आत्मारामजी म. सा. उपाधि प्रदान की। उस प्रसंग पर एक साहित्यकार मित्र ने लाड़-प्यार से बालक दूज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा, परन्तु विलक्षण, अलौकिक ज्योतिर्धर महर्षि थे। देश और विदेश के हर्ष-विभोर होकर मुझे कहा: "आधुनिक युग में हीरक लेखनी से पिताश्री स्वर्गवासी हो गये। माता इच्छाबाई भी रूग्ण हो गई और महान् विद्वान् उनके चरण-कमलों में विद्याध्ययन करने के लिए स्वर्ण-पत्र पर लिखने योग्य यदि कोई दिव्य कथा है तो वह मरणासन्न अवस्था में अपने लाड़ले को अपने समीप बुलाया और आते थे। वे अपनी शंकाओं का समाधान पाकर परितृप्त है-करूणामूर्ति गुरुवल्लभ की जीवन-कथा।" अश्रुपूरित नेत्रों से वात्सल्य वाणी में छगन को कहा : "बेटा! मैं प्रफुल्लित हो जाते थे। एशियारिक सोसायटी के मानद निस्सन्देह, गुरुवल्लभ जन-वल्लभ थे, निस्पृही सन्त, तुझको करुणासागर वीतराग परमात्मा की अविनाशी शरण में मंत्री डॉ. ए.एफ. सडोल्फ हॉरनेल महोदय ने अपने संपादिन ग्रथ उदारमना आचार्य, लोकमंगल के विराट् कवीश्वर और वात्सल्य सौंपकर इस नश्वर संसार से विदा हो रही हूँ। तू अविनाशी "उपासकदशांग" को इन ज्योतिर्धर को अत्यन्त श्रद्धा भक्ति से सखधाम में पहुँचाने वाले धन को प्राप्त करने और जगत का समर्पित किया। अपने "समर्पण-वक्तव्य" में उन्होंने गरुदेव को के महासागर। कल्याण करने में अपना जीवन बिताना। "बड़ी कठिनाई से यह "अज्ञान तिमिर भास्कर" के अलंकरण से विभूषित किया। वे प्रेम का मंगल-कलश लेकर इस धराधाम पर धन्वन्तरी के मंगल वचन करुणामूर्ति माता कह सकी और अर्हत् शब्द की समान अवतरित हुए। इस मंगल कलश में समता रस की ऐसे महर्षि की चरण-सेवा से मुनि बल्लभ विश्व-वल्लभ बन मंगल ध्वनि के साथ ही उसके प्राणहंस उड़ गये। संजीवनी औषधि का अमृत भरा हुआ था। वे जीवन भर प्रेमामृत गये। उनके देवलोक गमन के पश्चात् मुनि श्री उनके पट्टधर छगन हतप्रभ सा बैठा रहा। नयन-मुक्ता से माता का पिलाते रहे, पीडित, दुखी प्राणियों को जिलाते रहे, निराशा और दीनता के मरुस्थल में आशा और समृद्धि की गंगा-धारा प्रवाहित अभिसार किया। माता के ये शब्द उसकी तंत्री पर निनादित करते रहे। हए-"बेटा! अविनाशी सुखधाम में पहुँचाने वाले धन को प्राप्त संवत 1981 के लाहौर चातुर्मास में उनको आचार्य पदवी करने ओर जगत का कल्याण करने में अपना जीवन बिताना।" प्रदान की गयी। "आचार्य वह है जिसके चरित्र का अन्य जन उसके पास अक्षय निधि थी। वह थी करुणा सागर वीतराग और वह शुभ दिन भी आया जब संवत् 1942 में सुप्रसिद्ध अनुकरण करने लगे।" सचमुच उनके परम पावन चरित्र का परमात्मा महावीर की वाणी। उस अहिंसा और प्रेम की वाणी से वे जैनाचार्य न्यायाम्भोनिधि श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी म.सा. प्रभाव जनता पर अत्यन्त प्रबलता से पड़ा। फलस्वरूप अनेक जगत् के सताप को मिटात रहे-सूर्य और चन्द्र की तरह निष्पक्ष श्रीमद आत्माराम जी म. सा.) बडौदा नगर में पधारे। उनके पथभले मनुष्य मानवता के मंगल-मार्ग के यात्री हो गये। अनेक भाव से। प्रवचनों का प्रभाव अचूक था। छगन के जीवन में संसार के प्रति सेवा-पथ के अनुगामी हुए। सप्तव्यसन-मांस, मदिरा, जुआ, जीवन-प्रभा-जैनाचार्य श्रीमद् बल्लभ सूरिजी माहाराज का विरक्ति और वीतराग भक्ति में अनुरक्ति की भावना कल्प-बेलि चोरी, शिकार, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, का परित्याग कर
SR No.012062
Book TitleAtmavallabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay, Nityanandvijay
PublisherAtmavallabh Sanskruti Mandir
Publication Year1989
Total Pages300
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size55 MB
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