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________________ सम्पादकीय पुष्पदंत जैन 'पाटनी काल अपने प्रवाह से बिना रुके तथा बिना झुके निरन्तर चलता ही रहता है। भूत, वर्तमान एवं भविष्य की घटनाओं को काल के माध्यम से ही जाना जाता है। जिस प्रकार अनन्त चौबिसियां हो चुकी हैं, अनन्त होने वाली हैं, उसी प्रकार काल भी अनन्त हैं। ज्ञानी भगवन्तों ने काल को जानने के लिए काल चक्र का निर्धारण किया है : (1) उत्सर्पिणी काल :-शक्ति का उत्तरोत्तर विकास। (2) अवसर्पिणी काल :- शक्ति का उत्तरोत्तर हास। इन दोनों के प्रत्येक काल में चौबीस तीर्थंकर भगवंतों का अवतरण होता है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है। दोनों कालों को छ: छः भागों में विभक्त किया गया है, इसका रेखाचित्र इसी स्मारिका में दिया गया है। अवसर्पिणी काल के भी छ: भाग हैं, इसके तीसरे और चौथे भाग में चौबीस भगवन्तों का अवतरण हुआ। चौथे काल के अन्तिम दुःखम-सुखम भाग में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म हुआ। इन्होंने सर्वज्ञता को प्राप्त किया, मानव जाति के कल्याण हेतु तीर्थ की स्थापना की और चौबीसवें तीर्थंकर कहलाए। भगवान के निर्वाण काल के कुछ वर्षों बाद पाँचवां आरा प्रारम्भ हो गया। भगवान् के निर्वाण के पश्चात् इनके शासन को चलाने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी पहले पट्टधर हुए। सुधर्मा स्वामी के बाद क्रमशः उनके पट्टधर जम्बू स्वामी, प्रभव सूरि, शयम्भव सूरि, यशोभद्र सूरि, भद्रबाहु सूरि, स्थूलिभद्र आदि पट्टधर हुए इसी प्रकार क्रमांक से 44वें पट्टधर श्री जगच्चन्द्र सूरि हुए, यहाँ से तपागच्छ नाम प्रारम्भ हुआ। यही क्रमांक आगे चलते हुए 62वें पट्टधर गणि श्री सत्य विजय जी हुए, यहां से पीली चादर धारण करने का प्रचलन शुरू हुआ। ____72वें पट्टधर सद्धर्म संरक्षक श्री बुद्धि विजय जी, 73वें न्यायाम्भोनिधि श्री विजयानन्द सूरि (आत्माराम) और 74वें इस ग्रन्थ के चरित्रनायक पंजाब केसरी श्री विजय वल्लभ सूरि जी हुए। इनका जन्म काल वीर निर्वाण से 2396 (ई. सन् 1870), देवलोक गमन काल वीर सम्वत् 2480 (ई. सन् 1954) है। 16 वर्ष की आयु में दीक्षा लेकर 68 वर्ष साधु धर्म का पालन करते हुए 84 वर्ष की आयु भोग कर देवलोक गमन किया। आप एक ऐसे विरले जैन संत हुए हैं, जिन्होंने अपने साधु धर्म का दृढ़ता के साथ पालन करते हुए, मानव जाति के सर्वांगीण विकास की ओर ध्यान दिया। जो समाज के ऊपर उपकार करता है, समाज उन्हीं महापुरुषों को याद करता है। आज इस महापुरुष का निर्वाण हुए 50 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं, इनके उपकारों को पुनः याद करने के लिए इनके बताए हुए आदर्शों को जीवन में अपनाने के लिए और इनका दिव्याशीष प्राप्त करने के लिए चली आ रही अविछिन्न पाट परम्परा के 77वें पट्टधर कोंकण देश दीपक, दृढ़संयमी, महान् तपस्वी, गच्छाधिपति, जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नाकर सूरीश्वर जी म. ने जैन समाज को विविध मंगलमय कार्यक्रम करने की प्रेरणा दी, इसी प्रेरणा के अन्तर्गत इस स्मारिका ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है। उस जाति को जीवित रहने का अधिकार है, जो अपने आदर्श पूर्वजों के आदर्शों से अपनी अन्तर-आत्मा को प्रकाशित रखती है। जैन समाज में ऐसी अनेक महान विभूतियाँ हो गई हैं, जिनके उपकारों से उऋण होना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव है। उन महान् विभूतियों की असीम कृपा त्याग, संयम, तप एवं कठोर परिश्रम का ही परिणाम है कि आज मेरा लिारी R.३८२००९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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