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________________ 46 थे उपकारी गुरुदेव वल्लभ सूरि Jain Education International सूरि जी "सारी धरती कागज करूं, लेखनी करूं वनराय । सात समुद्र स्याही करूं, गुरु गुण लिखा न जाय।।” मैं कागज कलम लेकर साहस कर रही गुरु के गुणों को लिखने का लेकिन ये कागज़ पर्याप्त नहीं और कलम में भी क्षमता नहीं है। एकमात्र मेरा अपना प्रयास है। गुजरात की बड़ौदा नगरी में दीपचंद भाई के कुल में व इच्छा देवी की रत्न कुक्षि से जन्म लेने वाला रत्न छगन कुमार जो कि जैन शासन का सच्चा रत्न हुआ। न्यायाम्भोनिधि पंजाब देशोद्धारक जैनाचार्य विजयानन्द सूरि जी म.सा. विहार करते हुए बड़ौदा के जानीसेरी उपाश्रय में पधारे। तब यही छगन गुरु चरणों में जाकर आत्म धन की याचना करता है। मां का सपूत मां की अन्तिम आज्ञा का पालन करने के लिए अरिहंत सिद्ध-साहू व धर्म की शरण को स्वीकार करने के लिए गुरु आत्माराम जी के चरणों में समर्पित हो जाता है और आत्मधन के रूप में दर्शन - ज्ञान - चारित्र धन को ग्रहण करता है यानि राधनपुर की धन्यधरा पर भागवती दीक्षा को ग्रहण कर लेता है। दर्शन ज्ञान चारित्र की आराधना निरन्तर गुरुचरणों में बैठ कर करने वाला बालक जब छगन से वल्लभ विजय बनता है तो वही धीरे-धीरे अपने आत्मिक गुणों को विकसित करता हुआ गुरु आत्माराम का प्यारा वल्लभ बन जाता है। जिस वल्लभ की पात्रता को देखते हुए गुरु आत्माराम जी अपने चिन्ता से मुक्त होने के लिए अपने प्यारे वल्लभ को कहते हैं, “हे वल्लभ ! मैं अपने प्राण प्रिय पंजाब की देख रेख का भार तेरे कन्धों पर डालता हूं। तू मेरी इस धरोहर की सुरक्षा करते हुये अभिवृद्धि करना।” आज मुझे लिखते हुये गौरव होता है कि गुरु आत्माराम की धरोहर का गुरु वल्लभ अपने प्राण की परवाह किये बिना जो ख्याल रखा आज पंजाब उसे कैसे भूल सकता है। सन् 1947 में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का युद्ध हुआ था और देश के विभाग हुए, उस समय पंजाब केसरी गुरुदेव श्री का चातुर्मास विशाल साधु-साध्वी समुदाय के साथ गुजरांवाला में था। उस दृश्य को जब याद करते हैं आज भी हमारा दिल कम्पित होता है, अन्दर से भय लगता हैं। 24 घण्टे गोली की ही बोली सुनाई देती थी। बम के द्वारा आग बरस रही थी, वो दृश्य अति भयानक था । हमारे प्राणों के रक्षक गुरु वल्लभ को कैसे भूलेंगे हम पंजाबी सम्पूर्ण जैन समाज की व आचार्यों और मुनियों की एक ही आवाज़ थी हमारे जैन शासन का सितारा जो गुजरांवाला में फंसा हुआ है, उन्हें भारत में लाया जाये। सरकार के द्वारा व्यवस्था कर दी गई थी। लेकिन गुरु वचन, “हे वल्लभ ! मेरी धरोहर की सुरक्षा करना, संभालना, मैं तुझे सौपता हूँ।” “मैं इन्हें छोड़ कर जाता हूँ तो गुरु आज्ञा का भंग होता है, मुझे अपने प्राणों से भी गुरु आज्ञा प्यारी है।" भारत में आने से इन्कार कर दिया “मैं अकेला नहीं आऊंगा मेरा समाज का एक-एक बच्चे को साथ लेकर आऊंगा।" कैसे भूलेगा जीवनदान देने वाले गुरु के उपकार को और गुरु को । जो हमारे प्राणधार थे। बाह्य शरीर प्राणों का भी अभयदान देने वाले और आत्मिक भाव प्राणों का भी अभय देने वाले परमोपकारी, करुणासागर मेरे प्यारे गुरु आज भी आंखें बंद करके तुम्हारा स्मरण करती हूँ तो मेरे सामने रहते हो। तुम्हारी आत्मिक शक्ति आशीर्वाद से हमारी आत्मा इस संसार के कीचड़ से कमल की भांति अलिप्त बनी है। हे हमारे मन मंदिर में विराजित गुरुदेव हमें ऐसी आशीष देना हमारे जीवन पर अदृश्य कृपा बरसाना, जिससे हमारी आत्मा का कल्याण हो जाये। सा. अमित गुणा श्री जी म. (माता जी) * मुक्तक :- जो साधक अपनी इन्द्रियों को दमता है, वह अध्यात्म की वाटिका में रमता है, होगी अवश्य जीत इस दुनिया में आत्मा की, जिन में संयम साधना की अनुपम क्षमता है, हे मेरी श्रद्धा के केन्द्र गुरुदेव श्री, स्वर्गारोहण अर्द्धशताब्दी के पावन अवसर में यही श्रद्धापुष्प अर्पित करती हूं, “युगों तक रहेगा, गुरु तेरा नाम जगत में, चमकते रहेंगे चांद सितारे गगन में।" विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only 50 www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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