SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्तमान में ऐसे तो कितने ही आचार्य हुए हैं कि जिन्होंने जैन मन्दिरों के नवीनीकरण तथा मूर्तियों के नव निर्माण में सक्रिय रूप से भाग लिया है। यद्यपि वे प्राचीन जैन साहित्य के अनुशीलन, परिशीलन तथा प्रकाशन आदि कार्यों में भी पूर्णरूपेण गतिशील रहे हैं, तथापि समाज को समुन्नत तथा विकासशील बनाने के लिए जो योगदान युगदृष्टा जैनाचार्य श्री विजय वल्लभ सूरि जी महाराज ने किया है, वह अद्वितीय है। तत्कालीन शिक्षा क्षेत्र में पिछड़े हुए समाज को समय की गति का बोध कराने के लिए जो क्रांति का शंखनाद दीर्घद्रष्टा आचार्य प्रवर ने किया, सम्भव है कि वह अन्य कोई शायद ही कर पाता। आज से 60 वर्ष पूर्व की ही तो बात है। कि पूज्य गुरुदेव ने समाज की सुषुप्त चेतना को यह कहा कि- “उठो आगे बढ़ो, देखते नहीं कि किस प्रकार समय व्यतीत हो रहा है। आज सारा Jain Education International विश्व चेतना के के युगपुरुष संसार समय की गति के साथ चरण मिला कर उन्नति के शिखर की ओर अभिमुख है तो फिर हमारा यह समाज ही पीछे क्यों रहे।" आज आंखें मूंद कर लकीर पीटने वालों का समय नहीं । आज समय तो उनका है, जो अपने बौद्धिक विकास के आधार पर समय को अपने अनुरूप बना लेते हैं और जिनमें इस कला का अभाव होता है चाहे वह व्यक्ति हो अथवा समाज, वह अवश्य पिछड़ जायेगा । गुरुदेव की अन्तःस्फूर्णा किस प्रकार साकार बनी वह प्रसंग आज भी नया सा ही लगता है। गुरुदेव राजस्थान के तख्तगढ़ से बाली की ओर विहार कर रहे थे। उस समय वे एक ऐसे स्थान पर पधारे जहां वस्ती के नाम पर छोटा सा स्टेशन तथा कुछ कर्मचारियों के घर थे, इसके अतिरिक्त वहां की उजाड़ वनस्थली थी तथा आने-जाने वाले निरीह यात्रियों को लूटने के लिए बदमाशों के गुप्त अड्डे | यह थी फालना स्टेशन की स्थिति जो आज काफी समृद्ध बन विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका है। For Private & Personal Lise Only चुका पू. कार्यदक्ष आचार्य श्री विजय जगत्चन्द्र सूरीश्वर जी म. सहसा गुरुदेव के मुख से निकल पड़ा कि- कितना अच्छा होवे कि यहां पर एक जैन स्कूल अथवा कॉलेज की स्थापना की जाय क्योंकि इस स्थान पर स्थापित संस्था भविष्य में अति उन्नत बनेगी, ऐसा लगता है। सुनने वाले आश्चर्यचकित थे कि चारों ओर फैला हुआ निर्जन जंगल और इस निर्जन प्रान्त में स्कूल की कल्पना । यह कैसे सम्भव हो सकेगा। श्रद्धालु भक्तगण प्रार्थना भरे स्वर में बोले कि गुरुदेव, यदि आपकी इस इच्छा को किसी बड़े शहर में साकार रूप मिले तो अति उत्तम रहेगा तो वे मौन हो गए, इस प्रकार कि जैसे कोई भविष्यवेत्ता गंभीर हो जाया करते हैं। "वे कहा करते थे कि यदि जैन धर्म के महल को सुदृढ़, स्थायी रखना है, जैन संस्कृति को जीवित रखना है, गगनचुम्बी मन्दिर, उपाश्रयों को अक्षुण रखना है तो इनकी नींव को मजबूत करो। इनकी नींव है, हमारा साधर्मिक बन्धु साधर्मिक सक्षम, समर्थ होगा, तो महल टिका रहेगा। सातों क्षेत्रों को सम्भालना है, उनकी सुरक्षा करनी है, उनका सिंचन करना है, उन्हें सदा हरा-भरा रखना है, तो साधर्मिक बन्धु का पोषण करो। " एक दिन बाली में अस्सी हजार का चन्दा एकत्रित हो गया लेकिन फिर भी उससे स्कूल की समस्या तो हल न हो सकी क्योंकि आस-पास के वनस्थली के कुछ ऐतिहासिक क्षेत्रों के संघ अपने-अपने क्षेत्र का महत्व जमा कर इस मंगल कार्य की स्थापना अपने यहां करवाना 31 www.japalibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy