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________________ श्री मणि विजय जी ने वि.सं. 1904 पाटण, 1905 अज्ञात, 1906 अहमदाबाद, 1907 अज्ञात, 1908 राधनपुर, 1909 से 1915 तक अहमदाबाद, वि.सं. 1912 में पंजाब से आये हुए ऋषि बूटेराय जी, ऋषि मूलचन्दजी, ऋषि वृद्धिचन्द जी, तीनों स्थानकवासी साधुओं को संवेगी दीक्षा दी। इन तीनों साधुओं के नाम क्रमशः बुद्धिविजय जी, मुक्तिविजय जी, वृद्धिविजय जी रखे। बुद्धिविजय जी मणिविजय जी के शिष्य बने । मुक्तिविजय जी तथा वृद्धिविजय जी श्री बुद्धिविजय जी के ही शिष्य रहे । ये तीनों साधु सेठ की धर्मशाला में रहे। 1916 का चौमासा पालीताना में किया। चौमासे उठे भावनगर में आकर दयाविमल के पास योग वहन कर गणिपद पाया। वि.सं. 1917 (ई.सं. 1860 ) राधनपुर, वि.सं. 1918 अज्ञात, वि.सं. 1919 (ई.स. 1862) वि.सं. 1920 (ई.सं. 1863) भीष्मनगर में चीमासा किया वि.सं. 1921 से 1935 (ई.सं. 1864 से 1878) तक अहमदाबाद में ही रहे और यहीं चौमासे किये। इस बीच में मुनि सौभाग्यविजय जी को पन्यास पट्टी दी। वि.सं. 1935 (ई.सं. 1878) आसोज सुदि 8 को चौबीस उपवास करके श्री मणि विजय जी अहमदाबाद में स्वर्ग सिधारे। आप के सात शिष्य थे। 1. मुनि श्री अमृतविजय जी, 2. मुनि श्री बुद्धिविजय जी, 3. मुनि श्री प्रेमविजय जी, 4. मुनि श्री गुलाबविजय जी, 5. मुनि श्री सोमविजय जी, 6. मुनि श्री सिद्धिविजय जी (सिद्धि सूरि), 7. मुनि श्री हीरविजय जी पूज्य बुद्धिविजय जी के जीवन के मुख्य घटनाएं इसलिये सद्गुरुदेव बूटेराय जी महाराज तथा उनके शिष्यों ने संवेगी दीक्षा लेने के बाद शुद्ध सामाचारी पालन करने वालों की पहचान के लिये गाणि सत्यविजय जी के समय 'गुरु परम्परा से चालू की हुई पीली चादर धारण की पश्चात् सद्गुरुदेव श्री आत्माराम जी ने भी संवेगी दीक्षा लेने के बाद अपने शिष्य परिवार के साथ पीली चादर धारण की। 1. वि.सं. 1863 (ई.सं. 1806 ) में पंजाब के दुलूआ नामक गांव में सिखधर्मानुयायी जाट क्षत्रिय वंश में चौधरी टेकसिंह गिल गोत्रीय की पत्नी कमदेवी की कुक्षी से आपका जन्म हुआ। जन्म नाम माता-पिता द्वारा रखा हुआ टलसिंह । परन्तु आपका नाम दलसिंह प्रसिद्ध हुआ। 2. वि.सं. 1871 (ई.सं. 1814) में पिता टेकसिंह की मृत्यु माता के साथ दूसरे गांव बढ़ाकोट सावरवान में जाकर बस जाना। वहां पर आपका नाम बूटासिंह प्रसिद्ध हुआ। 3. वि.सं. 1878 (ई.सं. 1821) में पंद्रह वर्ष की आयु में संसार से वैराग्य, दस वर्ष तक सद्गुरु की खोज । LEGAR 4. वि.सं. 1888 (ई.सं. 1831 ) में लुंकामती साधु नागरमल्ल जी से स्थानकमार्गी साधु की दीक्षा दिल्ली में नाम ऋषि बूटेराय जी । आयु 25 वर्ष आप बाल ब्रह्मचारी थे। 5. वि.सं. 1888 से 1890 (ई.सं. 1831 से 1833 ) तक गुरुजी के साथ रहे। दिल्ली में तीन चीमासे किये थोकड़ों और आगमों का अभ्यास किया। 6. वि.सं. 1891 (ई.सं. 1834 ) में तेरापंथी मत (स्थानकमार्गियों के उपसंप्रदाय) के आचार विचारों को जानने-समझने के लिये उसकी आचरणा सहित तेरापंथी साधु जीतमलजी के साथ जोधपुर में चौमासा । 7. वि.स. 1892 (ई.सं. 1835 ) में पुनः वापिस अपने दीक्षागुरु स्वामी नागरमल्ल जी के पास आये और वि.सं. 1892 1893 (ई.सं. 1835-36) दो वर्ष दिल्ली में ही गुरुजी के अस्वस्थ रहने के कारण उनकी सेवा - श्रूषा - वैयावच्च में व्यतीत किये । वि.सं. 1893 में दिल्ली में गुरु का स्वर्गवास । 8. वि.सं. 1895 (ई.सं. 1838 ) में अमृतसर निवासी ओसवाल भाबड़े अमरसिंह का दिल्ली में लुंकामती ऋषि रामलाल से स्थानकमार्गी साधु की दीक्षा ग्रहण तथा आपकी ऋषि रामलालसे "मुखपत्ती मुंह पर बांधना शास्त्र सम्मत नहीं" के विषय पर चर्चा विचार में हलचल की शुरूआत। 9. वि.सं. 1897 (ई.सं. 1840) में गुजरांवाला (पंजाब) में शुद्ध सिद्धान्त ( सद्धर्थ) की प्ररूपणा का आरंभ, श्रावक लाला कर्मचन्द जी 50 Jain Education International विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only 23 www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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