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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ ऐतिहासिक तत्त्ववाली प्रतीत होती जा रही हैं। कुणाल, सम्प्रति और अशोकविषयक कथा जो बृहत्कल्पभाष्य में है उसकी ऐतिहासिकता की प्रतीति डा० मोतीचन्द्रजी ने इन्डिअन हिस्टॉरिकल काँग्रेस, १७ वाँ सम्मिलन, १६५४, अहमदाबाद में अपने विभागीय-प्रमुख व्याख्यान में करवाई है। भाष्यों में मुरुण्ड राजाओं के उल्लेख भी अाखिर सत्य मालूम हुए थे। सम्प्रति ने जैन साधुओं के विहार के लिए, आन्ध्र और दक्षिण में सुविधायें की यह भी सत्यघटना है। पश्चिमी और दक्षिणी भारत में (द्रविड-प्रदेश)में सम्प्रति ने मौर्यसाम्राज्य को बढ़ाया या बलवत्तर किया है। बृहत्कल्पभाष्य और आवश्यक चूर्णि के नहपान और सातवाहन के बीच के संघर्ष की और सातवाहन राजा की जीत की बात भी सत्य मालूम पड़ी है, क्यों कि गौतमीपुत्र सातकर्णी ने नहपान के सिक्कों पर फिर अपनी महोर लगाई है। हमारे खयाल में नहपान को जीतनेवाला सातवाहन कालक के समकालीन सातवाहन नरेश के बाद का राजा है।
बलमित्र-भानुमित्र और कालक का समकालीन सातवाहन ई० स० पूर्व की प्रथम शताब्दि के पूर्वार्द्ध या ई० स० पूर्व की द्वितीय शताब्दि के उत्तरार्द्ध में हुअा था। वह सातवाहन कौन था ? ये बातें अब फिर विचारणीय हैं क्यों कि कालक सचमुच हुअा था।
जैन आगम-साहित्य भारतीय संस्कृति और इतिहास के अध्ययन में अति महत्त्व का है इस बात की ओर योग्य ध्यान नहीं गया है। इस प्रागन साहित्य में कई बातें ऐसी हैं जिनका महत्त्व प्राचीन बौद्ध साहित्य से या ब्राह्मण साहित्य से कम नहीं। इन तीनों साहित्य का अध्ययन एक दूसरे का पूरक है। जिस को हम पुरातत्त्व में Northern Black Polished Ware (N.B.P.) कहते हैं या अशोक के जमाने का जो High Polish देखने में श्राता है, उसका एक मात्र वर्णन-संदर्भ हमें जैन औपपातिक सूत्र में पृथिवीशिलापट के वर्णक में मिलता हैं।' ०८
इससे हमें चाहिये कि जैन श्रागम साहित्य, विशेष करके भाष्यों और चूर्णियों की ओर ज्यादा ध्यान दें। इसकी अच्छी समीक्षा भारतीय संस्कृति के इतिहास में हमें सहाय्यक होगी। भाषाशास्त्रियों के लिए भी भाष्यों और विशेषतः चूर्णियों में विपुल सामग्री पड़ी है।
___ सुवर्णभूमि और सुवर्णद्वीप में भारतीय संस्कृति के प्रचार में पश्चिम और मध्य भारत का भी हिस्सा है जिसकी ओर भी ध्यान देना जुरूरी है। सूरक से सुवर्णभूमि जानेवाले व्यापारियों की कथा जातकों में मिलती है। कालक के कार्य प्रदेश भी पश्चिम, दक्षिण और माध्यभारत थे और वे सुवर्णभूमि में गये। गुजरात के व्यापारी जावा को जाते थे, गुप्तोत्तर काल में भी। गुजराती में इस मतलब की एक कहावत है कि जो जावा को जाता है वह बहुधा वापस नहीं पाता है और यदि कोई लोट आया, तो इतना धन लाता है जो पीढ़ियों तक श्रखूट रहे । प्राचीन जावा के रामायण 'काकविन' १०५ का वस्तु पश्चिम भारत में रचित भट्टिकाव्य से विशेषतः लिया गया है यह बात भी सूचक है।
१०८. देखो, उमाकान्त शाह, स्टडीझ इन जैन आर्ट (बनारस, १६५५), पृ० ६१-६६-८३.
१०६. इसके विशेष विवरण के लिये देखिये, डॉ. सो० हूश्कासकृत द बोल्ड-जावानीझ रामायण काकविन, श्रेवनहेग (नैदलैन्डझ), १६५५.
११०. इस लेख की हिन्दी भाषाशुद्धि और प्रफ देखने के लिये श्री जयन्तभाई ठाकर और पं० दलसुखभाई मालव पियाजी का ऋणी हूँ।
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