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________________ १२० आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ राजा बलमित्र-भानुमित्र श्रादि भी शाहों के साथ हो गये (प्रस्तुत विषय में कहावली का उल्लेख-"ताहे जे गहहिल्लेणवमाणिया लाडरायाणो अण्णे य ते मिलिउं सम्वेहिं पिरोहिया उजेणि।"-मुनिजी के अनुमान का आधार है)। वास्तव में कहावली में लाट के राजाओं के नाम नहीं हैं। फिर भी मुनिजी का अनुमान ठीक हो सकता है। कालक सूरि की सूचनानुसार गई भिल्ल को पदच्युत करके जीवित छोड़ दिया गया और उज्जयिनी के राज्यासन पर उस शाह को बिठाया गया जिस के यहाँ कालक ठहरे थे। मुनिजी खिखते हैं-"उक्त घटना बलमित्र के राज्यकाल के ४८ वर्ष के अन्त में घटी। यह समय वीर निर्वाण का ४५३ वाँ वर्ष था। ४ वर्ष तक शकों का अधिकार रहने के बाद बलमित्र-भानुमित्र ने उजयिनी पर अधिकार कर लिया और ८ वर्ष तक वहाँ राज्य किया; भरोज में ५२ वर्ष और उजैन में ८ वर्ष, सब मिल कर ६० वर्ष तक बल मित्र-भानुमित्र ने राज्य किया। यही जैनों का बलमित्र पिछले समय में विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ...बलमित्र-भानुमित्र के बाद उज्जयिनी के तख्त पर नभःसेन बैठा। नभःसेन के पांचवें वर्ष में शक लोगों ने फिर मालवा पर हल्ला किया जिसका मालव प्रजा ने बहादुरी के साथ सामना किया और विजय पाई। इस शानदार जीत की याद में मालव प्रजा ने 'मालव-संवत्' नामक एक संवत्सर भी लाया जो बाद में विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।"" ६६. वीर निर्वाण सम्वत् और जैन कालगणना, पृ० ५४-५५ । मुनिश्री पादनोंध में लिखते है-मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि में दी हुई गाथा में 'सगस्स चउ' अर्थात् 'उज्जयिनी में शक का ४ वर्ष तक राज्य रहा' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि उज्जयिनी शकों के हाथ में चार वर्ष तक ही रही थी। कालकाचार्य-कथा की “बलमित्त भाणुमित्ता, आसि अवंतीइ रायजुवराया। निय भाणिज्जत्ति तया, तत्थ गो कालगायरिओ॥" इस गाथा में और निशीथचूर्णि के-“कालगायरिओ विहरंतो उज्जेणिं गतो। तत्थ वासावासं ठितो। तत्थ णगरीए बलमित्तो राया, तस्स कनिट्ठो माया माणुमित्तो जुवरायाxxxx"-इस उल्लेख में बलमित्र को उज्जयिनी का राजा लिखा है। इस से यह निश्चित होता है कि......उज्जयिनी को सर करने के बाद उन्होंने (आर्य कालक ने) वहाँ के तख्त पर शक मंडलिक को बिठाया था पर बाद में उसकी शक्ति कम हो गई थी, शक मंडलिक और उस जाति के अन्य अधिकारी पुरुषों ने अवंति के तख्तनशीन शक राजा का पक्ष छोड दिया था।" इसी के समर्थन में मुनिजी व्यवहारचूर्णि का अवतरण देते हैं :-- “यदा काल एण सगा आणांता सो सगराया उज्जेणीए रायहाणीए तस्संगणिजगा 'अझं जातीए सरितो'त्ति काउं गव्वेणं तं रायं ण सुटु सेवंति। राया तेसिं वित्तिं ण देति। अवित्तीया तेरणं आढत्तं काउं ते गाउं बहुजणेण विएणविएण ते णिविसता कता, ते अण्णं रायं ओलग्गणछाए उवगता।" इस से मुनिजी का अनुमान है कि यह शकराजा कुछ समय के बाद हठा दिया गया होगा। ७०. वीर निर्वाण सम्बत् और जैन कालगणना, पृ० ५५-५६ । मुनिजी इसी निबन्ध में पृ० ५८ पादनोंध ४२ में लिखते हैं :-- विचार श्रेणि आदि में जो संशोधित गाथाएँ हैं उनमें इसका (नभःसेन का) नाम 'नहवाहन' लिखा है जो गलत है। तित्थोगाली में बलमित्र-भानुमित्र के बाद उज्जयिनी का राजा नभःसेन लिखा है। 'नहवाहन' जिसके नामान्तर नरवाहन' और 'दधिवाहन' भी मिलते हैं, भरोच का राजा था। सिक्कों पर इस का नाम 'नहपान' भी मिलता है। प्रतिष्ठान के सातवाहन ने इस के ऊपर अनेक बार चढ़ाइयों की थीं।" विचारश्रेणि अन्तर्गत गाथायें निम्नोल्लिखित हैं जं रयाणं कालगओ अरिहा तित्थङ्करो महावीरो। तं रयणिमवंतीई अहिसित्तो पालगो राया ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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