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________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ जिस के एक विभाग का नाम 'धर्मकथानुयोग' था। इस धर्मकथानुयोग में उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि सूत्रों को रक्खा था ५९। परन्तु नन्दीसूत्र में मूलप्रथमानुयोग का जो वर्णन दिया है वह इस आर्यरक्षितवाले धर्मकथानुयोग के साथ मेल नहीं खाता " ये नाम कालक के अनुयोगों के हैं, आर्यरक्षित के चार अनुयोग भिन्न भिन्न नामों से पिछाने गये हैं। हम देखते हैं कि नन्दीसूत्रकार के कथनानुसार मूलप्रथमानुयोग में तीर्थङ्कर, गणधर, पूर्वधर, आदि के अनशन आदि विषयों का वर्णन है। आर्य कालक के 'प्रथमानुयोग' में भी हम देख चुके हैं कि तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के पूर्वभवों और चरित्रों का वर्णन था, जैसा कि पञ्चकल्पभाष्य का कहना है। अतः वास्तव में नन्दीसूत्र में मूलप्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग के निर्देश में सूत्रकार आर्य कालक के अनुयोग-ग्रन्थों का ही उल्लेख कर रहे थे और इसी लिए इन्होंने मूल-प्रथमानुयोग ऐसा शब्दप्रयोग किया। क्यों कि ये मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोगकार आर्य कालक आर्य रक्षित से पूर्ववर्ती ही हो सकते हैं अतः वे (मुनिश्री कल्याणविजयजी के) प्रथम कालक-आर्य श्याम ही हो सकते हैं। जब अनुयोग निर्माता (घटना ४) आर्य कालक वह श्यामार्य ही हैं तब पूर्वाक्त प्रकार से घटना ३ से घटना ७ वाले आर्य कालक भी वही श्यामार्य ही हैं। इस सब चर्चा से फलित होता है कि आर्यकालक काल्पनिक नहीं किन्तु ऐतिहासिक व्यक्ति हैं जिन्हों ने मूल प्रथमानुयोग आदि का निर्माण किया और जिनका नन्दीसूत्रकार भी प्रमाण देते हैं। इनके लोकानुयोग में निमित्तशास्त्र था ऐसा पञ्चकल्पभाष्य का प्रमाण है। उसी निमित्तशास्त्र के एक विषय-प्रव्रज्या-के बारे में कालक के मत का अनुसरण वराहमिहिर ने किया और उसी विषय की गाथायें भी हमें उत्पलभट्ट की टीका में प्राप्त होती हैं। इन सब साक्षियों के सामने आर्य कालक के ऐतिहासिक व्यक्ति होने के बारे में अब कोई भी शंका नहीं रहती। और अनुयोगकार कालक वह आर्यरक्षित के पूर्ववर्ती श्यामार्य (प्रथम कालक) ही हैं। अतः घटना ३ से ७ वाले कालक भी श्यामार्य हैं न कि मुनिजी के द्वितीय कालक। प्राचीन और अर्वाचीन पण्डितों-ग्रन्थकारों के मत से श्यामार्य प्रथम कालकाचार्य माने जाते हैं। र्य श्याम और आर्य कालक ये दोनों नाम पर्यायरूप से एक ही व्यक्ति के लिए उपयोग में लिये गये हैं। इसी तरह सागर का पर्याय होता है समुद्र। किसी भी पट्टावली में हमें आर्य कालक के प्रशिष्य आर्य सागर नहीं मिलते किन्तु आर्य श्याम के प्रशिष्य आर्य समुद्र अवश्य मिलते हैं। और यह उल्लेख भी नन्दीसूत्र की स्थविरावली में है जो प्राचीन भी है और विश्वसनीय भी। नन्दीसूत्र पट्टावली का उल्लेख देखना चाहिये हारियगुत्तं साई च, वंदिमो हारियं च सामज्जं । वन्दे कोसियगोतं, संडिल्लं अज्ज जीयधरं ॥२६॥ ५६. देखो--कालियसुयं च इसिभासियाई तइओ य सूरपण्णत्ती। सव्वो य दिहिवाओ चउत्थो होइ अणुओगो।। --आवश्यकसूत्र, हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० ३०६, मूलभाष्यगाथा, १२४. आर्यराक्षितकृत चार अनुयोगों के नाम हैं-चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, कालानुयोग और द्रव्यानुयोग। ६०. द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १०६-१०७। मुनिजी लिखते हैं--" यद्यपि आवश्यकमूलभाष्य में 'चरणकरणानुयोग' पहिला कहा गया है और धर्मकथानुयोग' दूसरा, तथापि इस कथानुयोग को प्रथमानुयोग कहने से यह शात होता है कि पहले के चार अनुयोगों में धर्मकथानुयोग' का नंबर पहिला होगा। -वही, पृ० १०६, पादनोंध ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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