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________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ दादागुरु कालकाचार्य के साथ इन्द्र का प्रश्न आदि होना लिखा है, गईभिल्लोच्छेदक, चतुर्थी पर्युषणाकारक और अविनीत-शिष्य परिहारक एक ही कालकाचार्य थे, जो ४५३ में विद्यमान थे और श्यामाचार्य की अपेक्षा दूसरे थे। प्रस्तुत स्थविरावली की गाथा में प्रथम कालकाचार्य को निगोदव्याख्याता लिखा है जो कि इस विषय का एक स्पष्ट मतभेद है।" ४९ वास्तव में मुनिजी के लिए उत्तराध्ययन नियुक्ति के इस विधान को छोड़कर अन्य कल्पना करने का उचित नहीं है क्यों कि नियुक्ति का प्रमाण मेरुतुङ्ग की और दूसरी मध्यकाली पट्टावलियों से प्राचीन और ज्यादा विश्वसनीय है। फिर भी यहाँ एक बात को देखना जुरूरी होगा कि मनिजी के खयाल से भी गईभिल्लोच्छेदक, अविनीतशिष्य-परिहारक (सुवर्णभूमि को जानेवाले) और चतुर्थी प!षणकारक कालकाचार्य एक ही व्यक्ति थे। (५) अब नं ५ आदि घटनायें देखें। शककुलों को भारत में ला कर गर्दभराजा का उच्छेद करने की कथा इतिहास विदों को सुप्रतीत है। वहाँ भी निमित्त और विद्याज्ञान का उपयोग होता है। हम देख चुके हैं कि बृहत्कल्पभाष्य और चूर्णि में इस घटना का और नं. ७ की घटना का उल्लेख है मगर दोनों में से एक भी ग्रन्थकार इन दोनों घटनावाले कालक के भिन्न भिन्न होने का कोई सूचन नहीं देते। और जब उत्तराध्ययन-नियुक्ति नं. ७ और नं. २ वाले कालकाचार्य को एक ही व्यक्ति मानती है तब नं. ५, नं. ७ और नं. २ वाले कालक एक ही हैं। (६) नं.६ वाली घटना में कहा गया है कि बलमित्र-भानुमित्र नामक अपने भागिनेय राजाओं से नाराज हो कर आर्य कालक प्रतिष्ठानपुर जाने को निकले। बलमित्र के पुरोहित ने जैन मुनियों को अकल्प्य आहार दिलवाना शुरू किया जिससे साधुओं को भूखे रहना पड़ा। अतः कालकाचार्य ने प्रतिष्ठानपुर जाने के लिए विहार किया। वहाँ के राजा सालाहण (सातवाहन-जो जैन धर्म की ओर, विशेषतः आर्यकालक की ओर, अभिरुचि रखता होगा) को प्राचार्य ने कहा कि भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी को पयूषण पर्व करो। राजा ने कहा कि उस नगर में वह तिथि अाम प्रजा में इन्द्र महोत्सव का पर्व मनाई जाती है इस लिए प्राचार्य की अाज्ञानुसार पर्युषणापर्व उस दिन मनाना मुश्किल होगा। राजा ने दूसरे दिन पर्व मनाने की अनुज्ञा माँगी। आर्य कालक ने कहा कि तिथि का अतिक्रम नहीं हो सकता अतः पूर्व दिन को-चतुर्थी को-- पर्यषणा पर्व मनायो और उस दिन विधिपूर्वक श्रमणों को आहार भी दो। इस तरह प्रसङ्गवश कालकाचार्य ने चतुर्थी मनाई। और उस दिन से वह तिथि श्रमणपूजा-पर्व रूप से महाराष्ट्र में प्रचलित हुई। जैसे पहले कहा गया है, सिर्फ प्रभावक प्राचार्य ही ऐसे निर्णय दे सकते हैं, जो युगप्रधान प्राचार्य हों, बड़े श्रुतधर हों। और यहाँ भी तिथिनिर्णय का प्रसङ्ग होने से यह ज्योतिषशास्त्र--मुहूर्त और निमित्त-को जाननेवाले आर्य कालक के जीवन की घटना ही हो सकती है। फिर यह सुप्रतीत है कि नं.५ की गर्दभराजोच्छेदवाली घटना में बलमित्र-भानुमित्र का निर्देश होने से नं. ५ और नं. ६ के आर्य कालक एक ही व्यक्ति हैं और इस तरह जैसे कि हम पीछे देख चुके हैं नं. ५, नं. ६, नं. ७ श्रीर नं. २ वाली घटनाओं के कालक, एक ही हैं। नं. ३ और ४ वाली घटनाओं के आर्य कालक अनुयोगकार हैं उनका और सुवर्ण भूमि जानेवाले (नं.७) कालक का एक होना तो पहिले ही देख चुके हैं। नं. १ वाली घटना विस्तार से आगे देखेंगे। अनयोगकार कालक निमित्तज्ञानी हैं और नं. १ में यज्ञफल बतलाने वाले कालक भी समर्थ निमित्तज्ञानी हैं। अतः वास्तव में घटना नं. १ से ७ के नायक एक ही आर्य कालक होंगे। यही युक्ति-सङ्गत लगता है। ४६. वही, पृ०६४-६५ पादनोंध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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