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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ
कालक के जीवनकाल में उनके शकों को लाने के कार्य के विरुद्ध ( और दूसरे कार्यों के विरुद्ध) कुछ आन्दोलन हुआ होगा । मन्त्र-विद्या और निमित्त के प्रयोग श्राम तौर पर जैन साधुयों के लिए उचित नहीं माने गये हैं । विद्यापिण्ड को तो निषिद्ध ही माना गया है। और फिर परदेश से शकों को इस देश में लाने का बहुत से लोगों को (जैनधर्मावलम्बी को भी ) पसन्द न भी हो ।
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गर्दभरा जोच्छेदक कालकाचार्य के जीवन में साहस (adventure) का -- पराक्रम का-तत्त्व स्पष्ट दिखाई देता है । वे कोई साधारण व्यक्ति थे । उन्होंने जब देखा कि सूत्र नष्ट होते जा रहे हैं तब उन्होंने अनुयोग-ग्रन्थों की रचना की । बृहत्कल्पचूर्णि और टीका के अनुसार उनके अनुयोग को उनका शिष्यसमुदाय सुनता नहीं था। क्यों? अनुयोग के यहाँ दो अर्थ हैं--उपदेश-प्रवचन और चार्य कालक के रचे हुए अनुयोग ग्रन्थ जिनका व्याख्यान आप करते होंगे। हम सुनते हैं कि श्रार्य कालक के शिष्य प्रव्रज्या में स्थिर नहीं रहते थे। क्यों ? क्या इन सब निर्देशों से यही सूचित नहीं होता कि कालक के क्रान्तिकारी असाधारण खयाल और कार्य, पुराने रास्ते को छोड़ कर नये रास्ते पर चलने के साहस इत्यादि से सङ्कुचित मनोवृत्ति वाले और प्रगति विरोधी तत्त्व नाराज़ थे ? हरेक मज़हब की तवारिख में हम देखते हैं कि बड़े बड़े महात्मानों को ऐसे विरोध अपने जीवन में सहन करने पड़े यद्यपि आगे चलकर वे युगप्रधान माने गये । क्राइस्ट, महात्मा गांधी, तुकाराम, मीरां कबीर आदि अनेक दृष्टान्त हमारे सामने मौजूद हैं। कालकाचार्य को भी ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ा होगा।
जैन तारिख में भी हम देखते हैं कि श्रार्य सुहस्ति के श्राचरण से आर्य महागिरि नाराज हुए थे । आर्य वज्र जत्र पूजा के लिए पुष्प ले आये तब उनका यह कार्य आम तौर से साधुत्रों के लिए उचित न था । उनका भी विरोध हुआ होगा । शकों को लानेवाले, जीविकों से निमित्त पढ़नेवाले, निमित्तकथन और विद्याप्रयोग करनेवाले, पर्यूषणापर्व की पञ्चमी तिथि को बदल कर चतुर्थी को यह पर्व मनानेवाले, नये अनुयोग-ग्रन्थ रचनेवाले आर्य कालक के सामने ज़रूर विरोधी तत्त्व खड़े हुए होंगे। 3 मगर आर्य कालक रनेवाले थे ही नहीं | उनकी प्रकृति कोई असाधारण किसम की थी। जब उन्होंने देखा कि अपने ही शिष्य अपना ही अनुयोग सुनते नहीं थे तब उनको निर्वेद अवश्य हुआ मगर वे बैठे रहनेवाले या दबनेवाले नहीं थे | उन्होंने नये कार्यप्रदेश की ओर दृष्टि डाली । वे सुवर्णभूमि जा पहुँचे जहाँ भारतीय व्यापारी गये हुए थे ही, जहाँ उनका प्रशिष्य भी भेजा हुआ था ही और जहाँ भारत के अन्य धर्मावलम्बी सोदागर और साधु भी पहुँच चूके होंगे ।
शङ्का यह उपस्थित होगी कि अगर कालक के सुवर्णभूमिगमनवाली परम्परा सच्ची है तो फिर हमें सुवर्णभूमि में क्यों जैनधर्म के अवशेष मिलते नहीं ? लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि भविष्य में मिलना असम्भव है । हम यह तो जानते ही हैं कि ईसा की पहली दूसरी शताब्दी से लेकर भारतीय संस्कृति के अवशेष इन प्रदेशों में मिले हैं और भारतीय संस्कृति का ठीक ठीक प्रचार इस समय में इन प्रदेशों में हो चूका था । इस समय में वहाँ जानेवाले व्यापारियों में जैन भी अवश्य होंगे यह तो सर्व
४३. हमारे खयाल से कालक के शकों को लानेवाली घटना से ही ज्यादा विरोध हुआ होगा, परदेशी शासन को पसन्द करे ऐसी प्रजा गिरी हुई न थी । और न कोई भी प्रजा परदेशी शासकों को लानेवाले को सन्मान देती है । साध्वी को बचाने के लिये जो करना पड़ा वह प्रभावना का कार्य था पर इस कार्य में राजकीय स्वार्थ न था इस लिए विरोध सार्वत्रिक न होगा। विरोध होने पर भी श्रुतधर स्थविर आर्य कालक को समझनेवाले, उनका सन्मान करनेवाले भी होंगे ही। कालक देशद्रोही नहीं गिने जा सकते ।
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