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________________ १०४ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ कहाँ कहाँ विहार किया इत्यादि ब तें हमारे सामने उपस्थित न होने से यह खयाल करना कि अनाम (चम्पा)में कालाचार्य (कालकाच र्य) के जाने की परम्परा निराधार है या वह कालक-पर की नहीं हो सकती यह शंका निरर्थक होगी। और जैसा आगे बताया है, अज्ज कालक के ब्राह्मणकुल में जन्म होने की जैन परम्परा, कालक को निमित्त और मन्त्रज्ञान होने की परम्परा, वटवृक्ष के नीचे रहने की पंचकल्पभाष्य की ग्वाही इत्यादि से कालक के अनाम जाने के अनुमान को पुष्टि मिलती है। उत्पलभट्ट की टीका की हस्तप्रतों में वकालक से यदि वङ्का से कालक के सम्बन्ध का निर्देश हो तब तो इसको और भी पुष्टि मिलती है। कालक के व्यक्तित्व को ठीक समझा जाय तब प्रतीत होगा कि उनके लिए यह सब करना शक्य था। वहाँ से वे टोन्किन (दक्षिण चीन गये यह अनाम (चम्पा) की उस परम्परा का कहना है। जो कालक सिन्धु के उस पार शकस्थान-शककूल-पारसकूल को गये सो कालक पूर्व में बंगालसे बर्मा होकर इन सब प्रदेशों में भी गये यह समझने में कोई असङ्गतिदोष नहीं रहता। मगध से आगे जैनधर्म के क्रमशः विस्तार के इतिहास को विना देखे यह वस्तुस्थिति सम्भवित न लगेगी। महावीर गये थे राढ़ा में—पश्चिमी बंगाल में । वह प्रदेश अनार्यों से, असंस्कृत जनों से भरा पड़ा था। महावीर को वहाँ काफी उपसर्ग सहन करने पड़े। वे राढ़ा या लाढ़-वासी लोग, जिनको हम prinvitive peoples कहते हैं, वैसे थे। पूर्वीय प्रदेशों में बर्मा, अासाम, सयाम, हिन्दी-चीन, मलाया इत्यादि देशों में नाग इत्यादि जाति की प्रागैतिहासिक असंस्कृत प्रजात्रों में भारतीय संस्कृति ने जा कर अपने संस्कार फैलाये। यह तो चम्पा, कम्बोज़ (कम्बोड़िया) इत्यादि के इतिहास से सुप्रतीत है। प्राचीन काल में दक्षिण में जैसे अगत्स्य बगैरह ने यह कार्य किया, पूर्वीय प्रदेशों की ओर महावीर की नज़र दौड़ी। सम्भव है कि वे बंगाल की पूर्वीय सीमा तक (शायद बर्मी सरहद तक) गये। राढ़ा और उसके प्रदेशों में महावीर-विहार का विस्तृत बयान ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। महावीर के अनुगामी स्थविरों ने यह कार्य चालू रक्खा। तब ही तो हम स्थविरावली में ताम्रलिप्ति, कोटिवर्ष और पुण्ड्रबर्द्धन की शाखाओं के निर्देश पाते हैं। छेदसूत्रकार स्थविर आर्य भद्रबाहु (महावीर निर्वाण वर्ष १७०) नेपाल को गये थे यह भी इसी प्रवृत्ति का सूचक है। पञ्चकल्पभाष्य में गाथा है—"वंदामि भद्दबाई, पाईणं सयलसुयनाणिं"-इत्यादि। यहाँ "पाईणं" का 'प्राचीन-गोत्रीय' ऐसा अर्थ पिछले ग्रन्थकारों ने बतलाया है और "प्राचीनो जनपदः" ऐसा कहते हैं । पाहरपुर (बंगाल) से उत्खनन में गुप्तकालीन ताम्रपत्र-दानपत्र मिला है जिस में पञ्चस्तूपान्वय (सम्भवतः मथुरा का) के जैनाचार्यों के वहाँ तक के विहार की साक्षी मिलती है।३५ ___ कम से कम गुप्तराजाओं के शासनकाल तक पूर्वीय भारत में जैन धर्म का प्रचार चालू रहा। फिर दूसरे दसरे किन्ही राजकीय प्रवाहों के प्रभाव से जैन सङ्घ का जमाव पश्चिम और दक्षिण भारत की ओर बढ़ता गया। पूर्व-भारत में वर्तमान सराक (श्रावक) जाति के लोग प्राचीन श्रावक (जैन) थे ऐसा कहा जाता है। किन्तु अपने विवरणात्मक ग्रन्थ में उन बातों का प्रसंग उपस्थित न होने से ( अनौचित्य समझ कर ) वे कुछ आगे न लिख सके । दत्त वाली घटना के अन्त में कडावलो-कार सिर्फ इतना ही लिखते हैं : "कालयसूरि वि विहिणा कालं काऊण गो देवलोग।" शायद कालक का शेष जीवन इन पूर्वीय प्रदेशों में गुजरा । इस विषय में निश्चयात्मक कुछ कहना शक्य नहीं। ३४. इस विषय में देखिये, बुलेटिन ऑफ ध प्रिन्स ऑफ वेल्स म्युझिअम, वॉ० १ नं. १, पृ० ३०-४०. ३५. एपिग्राफिका इन्डिका, वॉ० २०, पृ० ५६ से आगे; हिस्टरी ऑफ बेन्गाल, वॉ० १, पृ० ४१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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