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________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ संबंध में कहता है : 'श्रो स्नेहमयी, तुम मेरे लिए सुस्वादु भोजन बनाती थी। मेरी श्राज्ञा का तुमने सद पालन किया। तुम मेरे पाँवों को रोज दबाती और मेरे सोने के बाद सोती थी, मेरे उठने के बाद उठती थी। तुम्हारे पास कपट नहीं था। तुम्हारा स्वभाव सुंदर और सरल था। परंतु अाज तुम मुझे छोड़कर जा रही हो। अब क्या कभी मेरी इन आँखों को आराम से नींद आयेगी?' पत्नी के देहांत के बाद तिरुवल्लुवर ने वैराग्य धारणकर दीक्षा ले ली और अंत समय तक संसार को उपदेश देते हुए स्वर्गवासी हुए। कुरल की रचना कर तिरुवल्लुवर ने संसार को अपनी ओर से एक अमूल्य भेंट दी। इसका अनुवाद संसार की प्रायः सब भाषाओं में हो चुका है। इस बात का मैं पहले ही उल्लेख कर चुका हूँ कि जैन संत की इस रचना को तमिलभाषाभाषी तमिल वेद कहते हैं। कुरल के कुल तीन भाग हैं। पहले में धर्म, दूसरे में अर्थ और तीसरे में काम। इस प्रकार चतुर्विध पुरुषार्थों में से प्रथम तीन का ही इस ग्रंथ में काव्यपूर्ण वर्णन किया गया है। कुरल के इन तीन भागों में कुल १३३ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में १० पद्य हैं। कुल १३३० पद्य हैं। प्रत्येक कविता में दो चरण हैं। ये छोटे छोटे पद्य गंभीर तथा विशाल अर्थों से परिपूर्ण हैं। इस काव्य में एक प्रकार की असीमता, उदारता और सहृदयता है। अंतिम के प्रेम संबंधी प्रकरणों में अश्लीलता का नामोनिशान नहीं। संसार के श्रेष्ठ ग्रंथों में अश्लीलता की छाया से रहित शुद्ध प्रेम-तत्त्व का वर्णन करनेवाला केवल अकेला यही ग्रंथ है। इस ग्रंथ में प्रथम भाग को प्रारंभ करने के पूर्व मंगलाचरण के रूप में चार परिच्छेदों में ईश्वर की स्तुति की गयी है। स्तुति करते समय ग्रंथकार ने जैन परंपरा में अनेकांत दृष्टि का अवलंबन लेकर सब धर्मों का समन्वय करनेवाले सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्रसूरि, हेमचंद्राचार्य और श्रानंदधन की परिपाटी अपनाई है। उसे पढ़ने पर वह कुछ स्थलों पर परमात्मा को लागू होता है और कुछ स्थलों पर ऋषभदेव, सिद्ध. महावीर श्रादि तीर्थकर और विश्व के अन्य पथ-प्रदर्शकों को लागू होता है। इसलिए बौद्ध, जैन, शैव, वैष्णव आदि सब तिरुवल्लुवर को अपने अपने संप्रदाय का मानते हैं। ईसाई लोग भी कहते हैं कि कुरल पर बाईबल के विचारों की छाया है । लेकिन मंगलाचरण को पढ़ने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि तिरुवल्लुवर जैन ही थे । उदाहरण के लिए मैं यहाँ मंगलाचरण के प्रथम अध्याय को अविकल उद्धत अकर मुदल एषुत्तल्लाम् श्रादि भगवन् मुदट्रे उलकु अकार सभी अक्षरों का मूल है। इसी तरह जगत का मूल वही श्रादि भगवान् है। कदनालाय पयनॅन्कोळ वालखिन् नटाळ् तॉळा अर ऍनिन् । शास्त्रज्ञ अथवा बहुश्रुत होने से क्या (फल) हुअा, (अगर) चिन्मय या केवलज्ञानसंपन्न (भगवान) की पद-वंदना न की। मलर्मिश एहिनान् माणडि शेन्दार निलमिश नीडुवाळ् वार् ॥ जो भक्तों के हृदयकमल में निवास करनेवाले के महनीय चरणों के पूजक हैं। वे परमधाम में अमर रहेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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