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________________ तिरुवल्लुवर तथा उनका अमर ग्रंथ तिरुक्कुरल पं. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायशास्त्री वर्तमान काल में जिस प्रांत को हम तमिलनाडु के नाम से पुकारते हैं उसमें मुख्यतः कावेरी नदी के अासपास का प्रदेश सम्मिलित है। उसके एक ओर श्रान्ध्र, एक ओर कर्नाटक और उससे सटा हुश्रा मलागार या केरल प्रांत है। इस प्रदेश की मूल संस्कृति द्रविड़ है। इसकी पुरातनता के संबंध में अनुमान लगाना कठिन है। यह आर्य लोगों के हिंदुस्तान में आने के बहुत पहले से प्रचलित थी। द्रविड़ संस्कृति की तरह इस प्रदेश की मुख्य भाषा तमिल भी संस्कृत की तरह बहुत पुरानी है। सन् ईस्वी से बहुत पहले तमिल भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना हो चुकी थी। फिर भी दण्डकारण्य के उस पार की मराठी, गुजराती, बंगाली और हिंदी आदि भाषाओं की तरह तमिल भाषा का संस्कृत के साथ कोई संबंध नहीं है। भारतवर्ष में संस्कृत से सर्वथा अलिप्त रहकर अपना स्वतंत्र रूप से विकास करनेवाली यदि कोई भाषा है तो वह है तमिल। तमिल के अतिरिक्त तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि भाषाओं में संस्कृत के ५० प्रतिशत शब्द हैं, परंतु तमिल भाषा में यह खिचड़ी नहीं होने पाई। आन्ध्र लोग अपने देश को आन्ध्र देश या अान्ध्र सीमा कहते हैं। 'सीमा,' 'देश' आदि शब्द संस्कृत के हैं, परंतु तमिलनाडु में प्रयुक्त 'नाडु' शब्द देश के अर्थ में प्रयुक्त है, जो कि आर्येतर भाषा का सूचक है। तमिल में संस्कृत के शब्द बहुत कम हैं। उसमें विविध अर्थों को प्रकट करनेवाले अपने स्वतंत्र शब्द हैं। दुष्ट राजा और अच्छा राजा श्रादि के लिए कोडंगोल मन्नन अलग शेंगोल मन्नन जैसे अलग स्वतंत्र शब्द-कोश और स्वतंत्र वाक्यविन्यास है। उसकी रचना तथा साज-सज्जा स्वावलंबन के आधार पर स्थित है जो संस्कृत जितनी ही पुरानी है। प्राचीन तमिल वाङ्मय तीन भागों में विभाजित है। संगीत, नाट्य और साहित्य। साहित्य की तरह संगीत और नाट्यकला पर भी इस प्रांत में अनेक ग्रंथों की रचना हुई है। चिदंबरम् के नटराज के भव्य मंदिरवाले प्रांत में ऐसे ग्रंथों की रचना होना सहज था। नृत्यकला भी अपनी चरम सीमा पर पहुँची हुई थी। दूसरे प्रांतों में अप्राप्य यहाँ हजार हजार तारोंवाले तंतुवाद्य थे और उनसे सुमधुर संगीत की तरंगें तरंगित होती रहती थीं। इन तीन प्रकार के विभाजन के अतिरिक्त साहित्य में एक अन्य प्रकार का विभाग होता था--प्रेम वाकाय और प्रेमविहीन वाङ्मय। साहित्य के इन तीनों विभागों के उनके अनुकूल भिन्न भिन्न ब्याकरण भी होते थे। तमिल का यह पुरातन वाङ्मय टीका या भाष्य के बिना समझ में नहीं आता। जिस प्रकार प्राचीन संस्कृत और प्राकृत के ग्रंथों पर टीका, भाष्य, चूर्णि, विवरण, टिप्पणी और समालोचना आदि हैं उसी प्रकार तामिल के ग्रंथों पर भी हैं। प्राचीन तमिल वाङ्मय को समृद्ध करने में जैन आचार्यों का बहुत बड़ा हाथ है। उन्होंने सन् ईस्वी से पहले ही यहाँ की भूमि के साथ श्रात्मसात् होकर तमिल साहित्य की भी श्रीवृद्धि करना प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने श्रमण संस्कृति के प्रचार के साथ तमिल साहित्य को श्रेष्ठ महाकाव्य, कोश और व्याकरण अादि ग्रंथ दिये। ईस्वी सन् के पहले प्रथम संघ काल में तमिल साहित्य की जो रचना हुई वह काल कवलित हो गई उसके बाद जो साहित्य बचा है उसमें तमिल के श्रेष्ठ कवि, वैयाकरणकार तथा कोश-निर्माता जैन श्राचार्य ही हैं। जैन श्राचार्यों द्वारा ईसी की सातवीं-आठवीं शती तक तमिल साहित्य की बहुत सेवा की गई। उसके बाद तमिलनाडु में निरंतर अविरत युद्ध चलता रहा। उस युद्ध की ज्वाला में तमिल साहित्य का ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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