________________
८०
आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ
,
गृहस्थ के प्रतिदिन के धार्मिक कर्तव्यों में आचार्य हरिभद्र ने इसे द्रव्यस्तव को मुख्य स्थान दिया है और मुमुक्षु गृहस्थ के लिये श्रागमोक्त विधि के अनुसार श्रप्रमत्त भाव से इसके अनुष्ठान का आदेश दिया है। इसके अतिरिक्त द्रव्यस्तब और भावस्तच —- द्रव्यपूजा और भावपूजा ये दोनों एक दूसरे से अनुप्राणित हैं — परस्पर अनुस्यूत' हैं और साधु तथा गृहस्थ दोनों के लिये अनुष्ठेय हैं। जैसे द्रव्यपूजा के अनन्तर स्तुतिवन्दनरूप भावपूजा गृहस्थ करता है उसी प्रकार भावस्तत्र के अधिकारी साधु को भी अनुमोदना रूप में द्रव्स्तव के अनुष्ठान का अधिकार है। अर्थात् गृहस्थ के द्वारा श्राचरित द्रव्यस्तव - द्रव्यपूजा की अनुमोदना साधु के लिये इष्ट अथ च विहित है । इस कथन से पूजाविधि को श्रीहरिभद्रसूरि के वचनों में जो शास्त्रीय महत्त्व प्राप्त होता है उसकी कल्पना सहज ही में की जा सकती है।
साधु के लिये अनमोदन रूप से द्रव्यस्तत्र का विधान करते हुए श्रीहरिभद्रसूरि ने उसका शास्त्रीय समर्थन इस प्रकार किया है-
* ततम्मि वंदाए पूयणसक्कारहेउ उस्सग्गो । तो व हुद्दठो, ते पुरणदव्वत्थयसरूवे ॥
आचार्य कहते हैं कि चैत्यवन्दन नाम के शास्त्र में अर्थात् आवश्यक सूत्रगत ४" सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सग्गं वंदणबत्तियाए पूयण - वत्तियाए सकारवत्तियाए सम्मारणवत्तियाए " इत्यादि पाठ से अर्हच्चैत्यों के पूजन और सत्कार के निमित्त तीर्थकर प्रतिमाओं की पूजा और सत्कृति के लिये यति को
त्वात् । किं बिधेनेत्याह निर्वाणं निर्वृत्तिमिच्छता, निर्वाणव्यतिरिक्तस्य फलस्योपायान्तरेणापि सुलभत्वात् । तस्माद्धेतोः जिनानामर्हतां पूजा-अर्चनं कर्तव्या विधेया अप्रमत्तेन - अप्रमादवता प्रमादपरिहारेणेति यावत् । ( अभयदेवसूरि ) भावार्थ - निर्वाण की इच्छा रखनवाले गृहस्थ को प्रमाद का परित्याग करके सूत्रोक्त विधि के अनुसार जिनेन्द्रदेवों का
पूजन अर्चन करना चाहिये ।
यहां पर सूत्रोक्तविधि से, सम्भवत: राजप्रश्नीय सूत्रोक्त पूजाविधि ही अभिप्रेत होनी चाहिये, कारण कि वहीं
पर ही विशेष रूप से पूजा विधि का प्रकार वर्णित हुआ है ।
१. दव्वत्थयभावत्थयरूवं एयमिय होति दट्ठव्वं ।
प्रणोणस मणुबिद्धं णिच्छयतो भणिय विसयंतु ॥ ( पंचा. ६।२७ )
२. “ जइणो वि हु दव्वत्थयभेदो अणुमोयणेण अथिति ।
एवं च एत्थ णेयं इय सुद्धं तंतजुत्तीए " ( पंचा. ६ २८ )
( छा. यतेरपि खलु द्रव्यस्तवभेद: अनुमोदनेन अस्ति इति । एतच्च भत्र ज्ञेयं अनया शुद्धं तंत्रयुक्त्या । )
अर्थात् — भावस्तव में आरूढ होनेवाले साधु को भी अनुमोदन रूप से द्रव्यस्तव का अधिकार शास्त्रसम्मत है——-( यतेरपि भावस्तवारूढसाधोरपि, न केवलं गृहिण एव, द्रव्यस्त वभेदो- द्रव्यस्तवविशेषः, अनुमोदनेनजिन पूजादिदर्शनजनितप्रमोदप्रशंसादिलक्षणयाऽनुमत्या अस्ति - विद्यते xxx तंत्रयुक्त्या शास्त्रगर्भोपपत्त्या " ( श्री अभयदेवसूरि )
३. तंत्रे वन्दनायां पूजनसत्कार हे तुरुत्सर्गः ।
यतेरपि खलु निर्दिष्टः तौ पुनः द्रव्यस्तवस्वरूपौ ॥ ६।२६ ||
४. सर्वलोके अईच्चैत्यानां करोमि कायोत्सर्ग वन्दनप्रत्ययं, पूजनप्रत्ययं सत्कारप्रत्ययं संमानप्रत्ययम् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org