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________________ भट्टारक कनककुशल और कुँअरकुशल देसल राउ को नंद लखपति जीवौ शतानंद के जु सौलौं राज करौ महिमंडल इकु छत्र शशि रवि सागर तौलौं शासन दीनो अभंग सुमेरु सो तोहि बखान करे कवि कौलौ साचो भट्टारक कीनो कनक कनक के पाट परंपर जौंला । अर्थात् - राउल लखपति ने कनक कुशल को गाँव का पट्टा और हाथी दिया और साथ ही भट्टारक पद भी । ग्रामका शासन कनककुशल के शिष्यपरंपरा तक का था । कच्छ के इतिहास में लिखा है कि कनककुशलजी से लखपत ने ब्रज भाषा के ग्रन्थों का अभ्यास किया था और उन्हीं के तत्त्वावधान में छन्द एवं काव्यादि के शिक्षण के लिये एक विद्यालय स्थापित किया था। उस विद्यालय में किसी भी देश का विद्यार्थी व्रज भाषा के ग्रन्थों का अभ्यास करने आता तो उसे दरबार की ओर से पेटिया ( भोजन सामग्री) देने की व्यवस्था की गई थी। इसलिये भाट चारणों के लड़के दूर दूर से यहाँ अध्ययन के लिये आते थे'। आत्माराम केशवजी द्विवेदी के कच्छ देश के इतिहास के अनुसार यह विद्यालय संवत् १६३२ तक कनककुशल की परंपरा के भट्टारक जीवनकुशलजी की अध्यक्षता में चल रहा था । यद्यपि अत्र भी एक ऐसा ही विद्यालय चारणों की देखरेख में चल रहा है पर वह वही है या उससे भिन्न, निश्चित ज्ञात नहीं है। करीब डेढ़ सौ वर्षों तक वज्रभाषा के प्रचार व शिक्षण का जो कार्य इस विद्यालय द्वारा हुआ वह हिन्दी साहित्य के इतिहास में विशेष रूप से उल्लेखनीय है । हिन्दी साहित्य के परिचायक ग्रन्थ मिश्रबंधु विनोद के पृ. ६६७ में कनककुशल और कुरकुशल को भाई एवं जोधपुर निवासी बतलाते हुए इनके 'लखपत जस सिंधु' ग्रंथ का उल्लेख किया है। पर वास्तव में वे गुरु-शिष्य थे व जोधपुर निवासी नहीं थे। हमारे अन्वेषण में उन दोनों के और भी अनेक ग्रंथों का पता चला है जिनका परिचय आगे कराया जायगा । कुछ फुटकर पद्यों में कनककुशल का यशवर्णन पाया जाता है जिनमें से कुछ यह हैं : Jain Education International पंडित प्रवीन परमारथ के बात पाऊं, गुरुता गंभीर गुरु ज्ञान हुँ के ज्ञाता हैं पांच व्रत पालै राग द्वैष दोऊं दूर टाले, श्रावै नर पास वाकुं ज्ञान दान दाता हैं पंच सुमति तीन गुपति के संगी साधु, पीहर छः काय के सुहाय जीव त्राता हैं सुगुरु प्रताप के प्रताप पद भट्टारक, कनककुशलसूरि विश्व में विख्याता है । ६७ भट्टारक के भाव तें, ग्रंथ बडे की बूझि । गीत कवित्त रु दोहरा, सबै परत मन सुभि । नन सोहत बानि सदा, पुनि बुद्धि घनि तिहुँ लोकनि जानि पिंगल भाषा पुरातन संस्कृत तो रसना पे इती ठहरानि । साहिब श्री कनकेश भट्टारक, तो वपु राजे सदा रजधानी जौं लौं है सूरज चंद्र रु अंबर, तौ लौं है तेरे सहाय भवानी | राज्याश्रय के कारण कनककुशल की शिष्यपरंपरा ने हिन्दी साहित्य के सृजन और शिक्षण में विशेष सफलता प्राप्त की। कच्छप्रदेशवर्त्ती मानकुत्रा गांव ही संभवतः इनकी जागीरी में था इसलिये वहां इनकी शिष्य सन्तति द्वारा लिखित अनेक प्रतियाँ देखने को मिली हैं। इस विद्वद् परंपरा का वहाँ अच्छा ज्ञान भंडार १ कच्छ कलाधर, भाग २, पृ. ४३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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