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भट्टारक कनककुशल और कुअरकुशल
श्री अगरचंदजी नाहटा
. जैन मुनियों ने साहित्य एवं समाज की नानाविध सेवाएँ की हैं। उनका जीवन बहुत ही संयमित होता है, अतः उनकी आवश्यकताएँ थोडे समय के प्रयत्न से ही पूरी हो जाने से अन्य सारा समय वे अात्मसाधना, साहित्य-सृजन और पर कल्याण में ही लगा देते हैं। उनका जीवन आदर्श रूप होता ही है और उनके साहित्य में भी लोक कल्याणकारी भावना का दर्शन होता है। अधिकांश मुनि वाणी द्वारा तो धर्मप्रचार करते ही हैं पर साथ ही साहित्य-सृजन द्वारा भावी पीढियों के लिये भी जो महान् देन छोड जाते हैं उसके लिये जितनी कृतज्ञता स्वीकार की जाय, थोडी है।
जनभाषा में धर्मप्रचार व साहित्य-सृजन जैन मुनियों का उल्लेखनीय कार्य रहा है। भारत की प्रत्येक प्रधान प्रान्तीय भाषाओं में रचा हुआ जैन साहित्य इसका उज्ज्वल उदाहरण है। श्वेताम्बर जैन मुनियों का विहार राजस्थान एवं गुजरात में अधिक रहा अतः राजस्थानी एवं गुजराती को तो उनकी बडी देन है ही, पर हिन्दी भाषा के प्रभाव एवं प्रचार ने भी उनको आकर्षित किया। फलतः १७ वीं शताब्दी से उनके रचित हिन्दी भाषा के छोटे बडे ग्रंथ अच्छे परिमाण में प्राप्त होते हैं। ये हिन्दी रचनाएँ विविध विषयों की होने से विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनका संक्षिप्त परिचय मेरे “हिन्दी जैन साहित्य" लेख में दिया गया है।
अठारहवीं शताब्दी के अन्त और उन्नीसवीं शती के प्रारम्भ में कच्छ जैसे अहिन्दी भाषी प्रदेश में व्रज भाषा के प्रचार एवं साहित्य-सृजन में दो जैन मुनियों का जो उल्लेखनीय हाथ रहा है, उसका परिचय अभी तक हिन्दी एवं जैन जगत को प्रायः नहीं है। इसलिये प्रस्तुत लेख में भट्टारक कनककुशल और उनके शिष्य कुंअरकुशल की उस विशिष्ट हिन्दी साहित्य सेवा का परिचय करवाया जा रहा है।
___ कनककुशल नामक एक और तपागच्छीय विद्वान् प्रस्तुत लेख में परिचय दिये जाने वाले कनककुशल से १२५ या १५० वर्ष पूर्व हो चुके हैं। उनसे तो जैन संसार परिचित है। वे विजयसेनसूरि के शिष्य थे। उनकी रचित "ज्ञानपंचमी कथा" बहुत प्रसिद्ध है जो संवत् १६५५ में मेडता में रची गई। उनकी अन्य रचनाएँ “जिनस्तुति" (संवत् १६४१), "कल्याणमंदिर" टीका, विशाल लोचन स्तोत्र वृत्ति (संवत् १६५३ सादडी), साधारण जिनस्तव अवचूरी, रत्नाकर पंचविंशतिका टीका, सुरप्रिय कथा (संवत् १६५६), रोहिणेय कथा (संवत् १६५७) में रचित प्राप्त हैं। पर जिन कनककुशल का परिचय प्रागे दिया जायगा। उनकी जानकारी प्रायः जैन समाज को नहीं है। क्यों कि जैन धर्म सम्बन्धी उनका ग्रंथ नहीं मिलता। उनके गुरु का नाम प्रतापकुशल था। संवत् १७६४ के आसपास से इनके हिन्दी ग्रंथ मिलते हैं। आपके शिष्य कुँअरकुशल ने "लखपतमंजरी" में कविवंश वर्णन में अपनी गुरु परंपरा का परिचय अहइस पद्यों में दिया है। मूल पद्य लेख के अन्त में दिये जायेंगे। यहाँ उनका सार ही दिया जाता है। कविवंश वर्णन का सार ____ अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभु के पचपनवें पट्ट पर श्रीहेमविमलसूरि' हुए। ये गुरु बड़े
१ इनका जन्म सं. १४३२ दीक्षा १५३८ आचार्यपद १५४६ स्वर्ग सं. १५८३ है।
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