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________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ जाति का मूल आवास स्थान था। यहीं गोबी और मंगोलिया के बीच में कहीं चन्द्रद्वीप था जहां से निकास होने के कारण भारत के कनिष्क आदि शक-तुषार राजा चन्द्रवंशी कहलाते थे। इस प्रकार भारत की रि उस पट-मंडप के समान थी जिसके दीप्तिपट चारों दिशाओं में प्रकाश और वायु का आवाहन करने के लिये उन्मुक्त हो गए थे। भारत के जल और स्थल मार्गों पर इस समय अभूतपूर्व चहलपहल दिखाई देती थी। एक अोर राजदरबारों में विदेशी दूतमंडलों के आने-जाने का तांता लगा रहता था, तो दूसरी ओर भारतीय समुद्र तट के पोतपत्तन नानादेशीय व्यापारियों से भरे रहते थे। जब इन दूत-मंडलों का आदान-प्रदान हो रहा था, उस समय अंतर्राष्ट्रीय जगत् में भारत की ख्याति किसी जनपद के रूप में न थी, बल्कि उसे एक महान् देश की प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी। भारतीय दूत, भारतीय विद्वान् , इन सब पर भारत के एक खंड की सीमित छाप न थी। वे अपने साथ समग्र देश की राष्ट्रीय प्रतिष्ठा लेकर विदेशों में पहुंचते थे। जनता के मनोराज्य में देश की सत्ता, एक ओर अविकल थी। तभी देश के प्रत्येक भाग से झुंड के झुंड ब्राह्मण दूसरे भागों में जाकर बस जाते थे और राजाओं द्वारा उनके लिये भूमि और जीविका का प्रबन्ध किया जाता था। समतट के ब्राह्मण राजकुल में जन्मे हए शीलभद्र विद्वान नालन्दा विश्वविद्यालय में श्राकर वहां के प्राचार्य हो गए। कश्मीर के विद्वान् बिल्हण (११ वीं शती) कल्याणी के चालुक्य वंशी सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ (१०७६-११२७) के राजकवि के रूप में विद्यापति पदवी से सुशोभित हुए। बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित काव्य में करहाट की राजकुमारी चन्द्रलेखा के स्वयम्वर में देश का जो चित्र खींचा है वह कालिदास के इन्दुमती स्वयम्वर का ही परिवर्तित रूप है। वहां मंडप में अयोध्या, चेदि, कान्यकुब्ज, चर्मण्वती, तटदेश, कालंजरगिरि, गोपाचल, मालव, गुर्जर पाण्ड्य, चोल देशों के राजा उपस्थित हुए थे। वह स्वयम्वर एक देश की समान रीति-नीति की ओर संकेत करता है। मध्यकाल की राजनीति जिस प्रकार देश की एकता व्यक्त करती है वह विक्रमादित्य चालुक्य, राजचोल, राजेन्द्रचोल, सिद्धराज, भोज, कर्ण, गांगेयदेव. गोविन्दचन्द्र, विग्रहपाल आदि पचासों सम्राटों की दिग्विजयपद्धति, राज्यप्रणाली, गुणग्राहकता, धार्मिक जीवन, पारिवारिक जीवन, आदि सदृशी विशेषताओं से प्रकट होता है। सर्वत्र एक समान अादर्श और एक सी जीवनविधि पाई जाती है, जैसे देश-व्यापी किसी १. चीन की अनुश्रुतियों के अनुसार चीन सम्राट हो-ती के समय (८६-१०५ ई०) में भारतीय राजदूत चीन गये । मिलिन्द पन्ह के अनुसार, चीनी सम्राट हिवंती के दरबार में महाक्षत्र रुद्रदामा के दूत सिन्धु प्रान्त से उपहार लेकर गए थे । लगभग १६० ई० में अलेक्जेंडिया के शासक द्वारा भेजा हुआ पैंटेनस नामक राजदूत भारत आया । लगभग ३३६ ई० में सम्राट कॉस्टैंटाइन के यहां भारतीय प्रणिधिवर्ग पहुंचा। ५१८ ई० में उत्तरी वाईवंश की चीनसम्राशी द्वारा भेजा हुआ सुङ्गयुन् नामक दूत पश्चिमी भारत आया । ५३० ई० में भारतीय राजदूत उपहार लेकर कुस्तुंतुनियां के सम्राट जुस्टोनियन के दरबार में पहुंचे। ५४१ ई० में भारतीय राजदूत चीनी सम्राट ताइत्सुङ्ग के दरबार में गए । ६०७ ई० में सिंहल के हिन्दू शासक के दरबार में चीनी सम्राट् का भेजा हुआ दूत मंडल आया । चालुक्य सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में ईरानी सम्राट् खुसरूपरवेज (५६५-६२५) का भेजा हुआ प्रणिधिवर्ग आया । ६४१ में हर्ष का ब्राह्मण राजदूत चीन गया और ६४५ ई० में चीन सम्राट् का प्रणिधिवर्ग सम्राट हर्ष के दरबार में आया । बाण ने तो हर्षचरित में स्पष्ट लिखा है कि सब देशों से आये हुए दूत मंडल हर्ष के दरबार में ठहरे हुए थे (सर्वदेशान्तरागतैश्च दूतमंडलरुपास्यमानम्, हर्ष० उच्छ्वास २, पृ०६०)। यह सिलसिला इसी प्रकार आगे भी जारी रहा। सुमात्रा और यवद्वीप के शासक शैलेन्द्र वंशी राजा बालपुत्रदेव ने मुंगेर के राजा देवपालदेव के पास दूत भेजकर नालंदा विश्वविद्यालय में चातुर्दिश भिक्षुसंघ के लिये पांच गांव दान में देने का ताम्रपट प्राप्त. किया जो नालन्दा महाविहार की खुदाई में प्राप्त हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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