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________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ इस उल्लेख में ये बातें महत्त्वपूर्ण हैं। यहां समस्त भारतवर्ष के लिये महापृथिवी शब्द का प्रयोग हुआ है। प्राचीन भारतवर्ष की राजनैतिक परिभाषा में किसी राजा के अपने जनपद के राज्य विस्तार को पृथ्वी कहते थे जिस कारण राजा पार्थिव कहलाता था। एक-एक जनपद का स्वामी राजा वहां का पार्थिव होता था। किन्तु एक जनपद की सीमा से आगे बढ़ कर समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के लिये महा-पृथिवी शब्द का प्रयोग होने लगा था। पाणिनि की अष्टाध्यायी में महापृथिवी के लिये ही सर्वभूमि संज्ञा का प्रयोग हुआ है। सर्वभूमि के राजा को सार्वभौम कहते थे।' आपस्तम्ब श्रौत सूत्र (३०११) के अनुसार सार्वभौम राजा को ही अश्वमेध करने का अधिकार था। जो सार्वभौम होता था वही चक्रवर्ती कहलाता था। महाभारत के अनुसार दौःषन्ति भरत अश्वमेधों के करने से सार्वभौम चक्रवर्ती हुश्रा। ___दीघनिकाय में दूसरा महत्त्वपूर्ण उल्लेख महापृथिवी या भारतवर्ष की भौतिक श्राकृति के सम्बन्ध में है। अब तक इसके तीन प्रकार मिले है, कूर्म संस्थान, कार्मुक संस्थान और शकटमुख संस्थान। वराह मिहिर ने बृहत्संहिता में भारतवर्ष के संस्थान (अं० कनफ्युगरेशन) को कूर्म की आकृति वाला कहा है। उस कर्म संस्थान के नौ भेद किए हैं, अर्थात् १. मध्य भाग २. पूर्व दिशा में फैला हुअा मुख ३. दक्षिण-पूर्व दिशा में दाहिना पैर ४. दाहिनी कुक्षि ५. दक्षिण-पश्चिम का पिछला पैर ६. पुच्छ या पुट्ठों का भाग ७. उत्तर-पश्चिम का उपरला पैर ८. बाई ओर की उपरली कुक्षि और ६. पूर्व-उत्तर दिशा का अगला पैर। इस कूर्म-संस्थान के प्रत्येक भाग में जो जनपद या देश हैं उनके नाम भी अलग अलग गिनाए गए हैं। भारतवर्ष के संस्थान की दूसरी कल्पना पुराणों के भुवनकोश नामक अध्यायों में मिलती है। जहां इस भूमि को कार्मुक या धनुषाकृति कहा गया है। दक्षिण का घुमा हश्रा भाग जो समुद्र के भीतर घुसा हा है धनुष का मुड़ा हुअा डंडा है। उत्तर का हिमालय उस डंडे के ऊपर खिंची हुई डोरी है, जिसकी तान से डंडे का पृष्ठ भाग मानों झुक गया है। " कर्म संस्थान और धनुषाकृति संस्थान, इन दोनों कल्पनाओं से भी अधिक प्रत्यक्ष दीर्घनिकाय का उल्लेख है जिसमें भारत के उत्तरी मैदान और पर्वतों के मिले हुए भाग को श्रायताकार कहा गया है। इसके अग्रभाग में छकड़े के लम्बे और संकीर्ण मुख की भांति दक्षिण भारत का भूभाग निकला हुआ है। देश के लिये शकटमुखी संस्थान की यह कल्पना इतनी प्रत्यक्ष और सचित्र है जैसे किसी अर्वाचीन मानचित्र में भारतवर्ष की प्राकृति को देखकर कोई उसका वर्णन कर रहा हो। भारत-भूमि की इस प्रत्यक्षसिद्ध भौगोलिक एकता को आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में जो समर्थन प्राप्त हुश्रा और उसकी जैसी पूर्ति हुई उसका वर्णन अतीव रोचक विषय है। राजनैतिक क्षेत्र में भी इस मौलिक एकता ने आदर्श के रूप में सदा लोगों को प्रेरित और आन्दोलित किया। यह एक तथ्य है कि हमारी यह भूमि प्राकृतिक सीमाओं के विभाग से अनेक जनपदों में विभक्त थी। इस प्रकार के लगभग दो सौ जनपदों की सूची पुराणों के भुवनकोश नामक अध्यायों में प्राप्त होती है। जनपदों का यह बंटवारा जनता की स्वाभाविक स्थानीय आकांक्षाओं की पूर्ति करता था। वह जनता के लिये स्थानीय एकता का सुदृढ़ बन्धन था। राज्यों के ऐतिहासिक विघटन के समय भी जनपदीय जीवन की इकाई ठोस चट्टान की भांति स्थिर रहती थी। जनपदों के रूप में भारतीय जीवन की माला हिमाद्रि से कुमारी तक गूंथी गई थी। जनपदों को हम इस माला के स्थायी मनके कह सकते हैं। प्रत्येक जनपद की पृथिवी स्थानीय जीवन १. सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणमौ। ५।११४१; तस्येश्वरः ५।११४२; सर्वभूमेरीश्वरः सार्वभौमः पृथिव्या ईश्वरः पार्थिवः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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