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________________ जैन दृष्टि से साधना मार्ग श्री ऋषभदासजी आत्मा पर आवरण के कारण शरीर के प्रति आसक्ति आ जाती है और मनुष्य शारीरिक सुखों के लिए प्रयत्न करने लगता है, शारीरिक सुखों के लिए दूसरों को कष्ट पहुंचाता है। वह भूल जाता है कि सभी जीव समान हैं और दुःख किसीको भी प्रिय नहीं है। प्रात्मा में अनंत सुख भरे हुए हैं, यह वह आवरणों के कारण भूल जाता है। इसलिए कर्मों के आवरण दूर करना साधना का उद्देश्य है। . . सबकी भलाई-श्रेय ही सुख का कारण है। दूसरे को दुःख देकर श्रेय नहीं होता। इससे दुःख ही मिलता है। पर जब अात्मा के आवरण दूर हो जाते हैं तब आत्मा शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनती है, आत्मचेतना प्रकट होनेपर शारीरिक सुखदुःख का असर नहीं होता। ___ कर्मों के मुख्य आवरण हट जाने पर भी शरीर को शेष आयु भोगनी पड़ती है। जबतक शरीर रहता है, नाम से पुकारा जाता है और वेदना भी होती है। लेकिन इन अायु, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों का आवरण हट जाने से उनका असर नहीं होता। इसी कारण से फिर से बंध नहीं हो सकता। मानव जीवन का ध्येय है सबके प्रति समभाव रखकर सबके श्रेय का प्रयत्न करना, केवल अपना ही नहीं, सबका उदय करने में लग जाना। यह पूर्ण विकास है और इससे एक व्यक्ति सिद्ध हो जाता है। वह व्यक्ति से समष्टि में लीन हो जाता है। वह जो कर्म करता है उसमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होती। वह सदा सचेत रहता है इसलिए बंध का कारण नहीं बनता। उसमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का पूरा विकास हो जाता है। अात्मा पर श्रावरण डालने वाले कर्मों का ज्ञानियों ने इस प्रकार वर्णन किया है : ज्ञान और दर्शन को ढकने वाले, मोहनीय और अन्तराय। इन कर्मों के श्रावरण से अात्मस्वरूप को भूलकर मनुष्य अज्ञानी बनता है। सत्य की पहिचान नहीं कर सकता। वह यह भी नहीं जानता कि उसे अपने श्रेय के लिए क्या करना चाहिए, और जान भी लेता है तो वह वैसा आचरण नहीं कर पाता। इसलिए कर्मों के प्रावरण दूर करना और नये कर्म अाने न देना यह साधना है। मन, वचन और शरीर को बुराई से रोकना साधक के लिए आवश्यक है। मन कभी खाली नहीं रहता, वह किसी न किसी विषय में लगा ही रहता है। साधक दूसरे के अनिष्ट के चिंतन का त्याग करता है। जो उसका अहित करता है, वह उसकी भी भलाई ही चाहता है। वह जानता है कि कोई भी उसका अहित अज्ञानवश ही करता है। अज्ञानी पर तो दया ही करना चाहिए। वह तो अपना अहित करनेवाले को उपकारी मानता है क्योंकि कर्मों के प्रावरण या बंध के कटने में उसे मदद मिली है। यह समत्व दृष्टि श्राने पर ही होता है। यदि मन स्वार्थ या अन्य किसी कारण से दूसरे का अहित सोचता है तो वह उसके निरोध का प्रयत्न करता है। वह जानता है कि बुराई प्रथम मन पर हावी होती है, फिर उससे वैसे बुरे काम होते हैं । इसलिए सावधान होकर मन को बुरे विषयों से मोड़ता है। विचारों की तरह वह वाणी का भी संयम रखता है। दूसरे का अकल्याण या अश्रेय हो, ऐसी भाषा वह नहीं बोलता । उसकी भाषा सत्य, परिमित, हितकर व मीठी होती है। उसका प्रयत्न रहता है कि उसके बोलने से किसी का अश्रेय न हो, किसी का मन न दुःखे। ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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