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________________ श्री आत्मारामजी तथा ईसाई मिशनरी प्रा. पृथ्वीराज जैन, एम्. ए., शास्त्री पुर्तगाल निवासी साहसी नाविक वास्को-दे-गामा ने अाशा-अन्तरीप का चक्कर लगाते हुए भारत पहुंचने का नया समुद्री मार्ग खोज निकाला और उस का जहाज़ २२ मई १४६८ ई० को मालाबार तट पर कालीकट के पास आकर ठहरा। वहां के राजा ज़मोरिन ने उस का साथियों सहित स्वागत किया और उन्हें वहां रहने तथा व्यापार करने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार युरोपियन भारत में आने लगे। ये ईसाई धर्म के मानने वाले थे। धीरे धीरे दूसरी युरोपीय जातियां भी भारत में आई और उन्हों ने अपनी व्यापारिक कोठियों की स्थापना की। परिस्थिति से लाभ उठाकर उन्हों ने अपनी राजनैतिक सत्ता भी स्थापित की और कई नगरों पर अधिकार कर लिया। पुर्तगालियों में धर्म की कट्टरता अधिक थी। वे प्रजा को ज़बर्दस्ती ईसाई बना लेना अपना कर्त्तव्य समझते थे। यद्यपि युरोपीय लोगों का १५०० ई. के लगभग नए मार्ग से भारत में अागमन शुरु हो गया था और वे अपने धर्म प्रचार के काम को भी उत्साहपूर्वक करते थे, तथापि १८०० ई० तक भारत में इस धर्म का प्रचार अधिक न हो सका। जनता इन पर विश्वास न रखती थी। यह नया धर्म यहां के आदर्शों के अनुकूल भी न था। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी की राजनैतिक सत्ता १७५७ ई० की प्लासी की लड़ाई के बाद उत्तरोत्तर बढ़ने लगी और दूसरी जातियां इस क्षेत्र में हार गई। प्रारम्भ में कम्पनी सरकार धर्म के विषय में हस्तक्षेप करने से संकोच करती थी। उसे अपने व्यापारिक हितों की चिन्ता अधिक थी। कम्पनी सरकार ने कुछ ऐसे नियम भी बनाए थे जिन के अनुसार कोई कर्मचारी न तो भारतीय धार्मिक विषयों में हस्तक्षेप कर सकता था और न ही बाहर से कोई धर्मप्रचार के लिए श्रा सकता था। अंग्रेजों की पहली व्यापारिक कोठी सूरत में सम्राट् जहांगीर की इज़ाज़त से १६१३ ई० में खुली। धीरे धीरे उन्हों ने मुग़ल सम्राटों को प्रसन्न कर व्यापार के लिए कई सुविधाएँ प्राप्त कर लीं। किन्तु शुरु में अंग्रेज व्यापारियों का सदाचार और व्यवहार अत्यन्त गिरा हुआ था। धोखा और बेईमानी इन की व्यापारिक नीति के मुख्य सिद्धान्त थे। उन के व्यवहार को देख कर भारतवासी ईसाई धर्म को भी बुरा समझने लगे। एक लेखक ने लिखा है, "भारतवासी ईसाई धर्म को बहुत गिरी हुई चीज़ ख्याल करते थे। सूरत में लोगों के मुंह से इस प्रकार के वाक्य प्रायः सुनने में आते थे कि 'ईसाई धर्म शैतान का धर्म है, ईसाई बहुत शराब पीते हैं, ईसाई बहुत बदमाशी करते हैं, और बहुत मारपीट करते हैं, दूसरों को बहुत गालियां देते हैं।' टेरी साहिब ने इस बात को स्वीकार किया है कि भारतवासी स्वयं बड़े सच्चे और ईमानदार थे और अपने तमाम वादों को पूरा करने में पक्के थे। किन्तु यदि कोई भारतीय व्यापारी अपने माल की कुछ कीमत बताता था और उस कीमत से बहुत कम ले लेने के लिये उस से कहा जाता था तो वह प्रायः उत्तर देता था—'क्या तुम मुझे ईसाई समझते हो, जो मैं तुम्हें धोखा देता फिरूंगा?" १. इतिहास में तो इस बात के भी प्रमाण विद्यमान हैं कि ईसाई प्रचारक ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ही दक्षिण भारत में आए थे। २. पं. सुन्दरलाल : भारत में अंग्रेजी राज-पृष्ठ १८-१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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