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________________ ४० श्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ बतलाऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरह से भी नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है, मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है । परलोक नहीं है, परलोक नहीं नहीं है, परलोक है भी और नहीं भी है; परलोक न है और न नहीं है । ' संजय के परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्ति के सम्बन्ध के ये विचार शत प्रतिशत प्रज्ञान या निश्चयवाद के हैं। वह स्पष्ट कहता है कि "यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ ।” वह संशयालु नहीं, घोर अनिश्चयवादी था। इसलिये उसका दर्शन राहुलजी के शब्दों में "मानव की सहजबुद्धि को भ्रम में नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर भ्रान्त धारणाओं की पुष्टि ही करना चाहता है । " वह श्राज्ञानिक था । बुद्ध और संजय म० बुद्ध ने ' १ लोक नित्य है, २ अनित्य है, ३ नित्य अनित्य है, ४ न नित्य न अनित्य है, ५ लोक अन्तवान् है, ६ नहीं है, ७ है नहीं है, ८ न है न नहीं है, ६ मरने के बाद तथागत होते हैं, १० नहीं होते, ११ होते हैं नहीं होते, १२ न होते हैं न नहीं होते, १३ जीव शरीर से भिन्न है, १४ जीव शरीर से भिन्न नहीं है।' (माध्यमिक वृत्ति पृ० ४४६ ) इन चौदह वस्तुत्रों को अव्याकृत कहा है । मज्झिमनिकाय (२।२३) में इनकी संख्या दस है । इनमें आदि के दो प्रश्नों में तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिनाया है । ' इनके अव्याकृत होने का कारण बुद्ध ने बताया है कि - इनके बारे में कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिये उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद, निरोध, शान्ति, परमज्ञान या निर्वाण के लिये आवश्यक है ।' तात्पर्य • यह कि बुद्ध की दृष्टि में इनका जानना मुमुक्षु के लिये आवश्यक नहीं था । दूसरे शब्दों में बुद्ध भी संजय की तरह इनके बारे में कुछ कहकर मानव की सहज बुद्धि को भ्रम में नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त धारणाओं की सृष्टि ही करना चाहते थे। हाँ, संजय अब अपनी अज्ञानता और अनिश्चय को साफ साफ शब्दों में कह देता है कि 'यदि मैं जानता होऊं तो बताऊं,' तब बुद्ध अपने न जानने का उल्लेख न करके उस रहस्य को शिष्यों के लिये अनुपयोगी बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं । श्राजतक यह प्रश्न तार्किकों के सामने ज्यों का त्यों है कि 'बुद्ध की अव्याकृतता और संजय के अनिश्चयवाद में क्या अंतर है, खासकर चित्त की निर्णयभूमि में । सिवाय इसके कि संजय फक्कड़ की तरह पल्ला झाड़कर खरी खरी बात कह देता है और बुद्ध कुशल बड़े श्रादमियों की शालीनता का निर्वाह करते हैं । ' बुद्ध और संजय ही क्या, उस समय के वातावरण में आत्मा, लोक, परलोक और मुक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में सत् असत् उभय और अनुभय या वक्तव्य ये चार कोटियाँ गूँजती थीं। जिस प्रकार आज का राजनैतिक प्रश्न 'मजदूर और मालिक, शोष्य और शोषक के' द्वन्द्व की छाया में ही सामने आता है उसी प्रकार उस समय के आत्मादि श्रतीन्द्रिय पदार्थविषयक प्रश्न चतुष्कोटि में ही पूछे जाते थे । वेद और उपनिषद् में इस चतुष्कोटि के दर्शन बराबर होते हैं। 'यह विश्व सत् से हुआ या सत् से ? यह सत् है या सत् या उभय या अनिर्वचनीय' ये प्रश्न जब सहस्रों वर्ष से प्रचलित रहे हैं तब राहुलजी का स्याद्वाद के विषय में यह फतवा दे देना कि- 'संजय के प्रश्नों के शब्दों से या उसकी चतुर्भङ्गी को तोड़ मरोड़ कर सप्तभंगी बनी ' – कहाँ तक उचित है, इसका वे स्वयं विचार करें । बुद्धके समकालीन जो अन्य पाँच तीर्थिक थे, उनमें निग्गंठ नाथपुत्त वर्धमान महावीर की सर्वज्ञ और सर्व दर्शी के रूप में प्रसिद्धी थी। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे या नहीं यह इस समय की चर्चा का विषय नहीं है, पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक अवश्य थे और किसी भी प्रश्न को संजय की तरह निश्चय या विक्षेप कोटि में डालने वाले नहीं थे, और न शिष्यों की सहज जिज्ञासा को अनुपयोगिता के भयप्रद चक्कर में डुबा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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