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________________ जैन साधना का इच्छायोग कविरत्न श्रद्धेय श्री अमरचन्द्रजी महाराज जैन धर्म की साधना इच्छा योग की साधना है-- सहज योग की साधना है। जिस साधना में बलप्रयोग हो, वह साधना निर्जीव बन जाती है । साधना के महापथ पर अग्रसर होने वाला साधक अपनी शक्ति के अनुरूप ही प्रगति कर सकता है । साधना की जाती है, लादी नहीं जा सकती। संसार में जैन धर्म अहिंसा का, शान्ति का, प्रेम का और मैत्री का अमर सन्देश लेकर आया है। उस का विश्वास प्रेम में है, तलवार में नहीं । उसका धर्म श्राध्यात्मिकता में है, भौतिकता में नहीं। साधना का मौलिक आधार यहाँ भावना है, श्रद्धा है । आग्रह और बलात्कार को यहाँ प्रवेश नहीं है । जब साधक जाग उठे, तभी से उस का सवेरा समझा जाता है। सूर्यरश्मियों के संस्पर्श से कमल खिल उठते हैं । शिष्य के प्रसुप्त मानस को गुरु जाग्रत करता है, चलना उसका अपना काम है । आगम वाङ्मय का गंभीरता से परिशीलन करनेवाले मनीषी इस तथ्य को भली भांति जानते हैं कि परम प्रभु महावीर प्रत्येक साधक को एक ही मूलमन्त्र देते हैं, कि 'जहा सुहं देवाप्पिया मा पडिबंधं करेह ” देव वल्लभ मनुष्य ! जिस में तुझे सुख हो, जिस में तुझे शान्ति हो, उसी साधना में तू रम जा । परन्तु एक शर्त जरूर है, , - " जिस कल्याण - पथ पर चलने का तू निश्चय कर चुका है, उस पर चलने में विलम्ब मत कर, प्रमाद न कर । < इस का तात्पर्य इतना ही है, कि जैन धर्म की साधना के मूल में किसी प्रकार का बलप्रयोग नहीं है, बलात्कार से यहाँ साधना नहीं कराई जाती है। साधक अपने आप में स्वतन्त्र है । उस पर किसी प्रकार का आग्रह और दबाव नहीं है । भय और प्रलोभन को भी यहाँ अवकाश नहीं है । सहज भाव से जो हो सके, वही सच्ची साधना है । ग्रात्म-कल्याण की भावना लेकर श्रानेवाले साधकों में वे की सन्ध्या में लड़खड़ाते चल रहे थे वे भी थे, जो अपने जीवन के वसन्त में टखेली कर चल रहे थे, और वे भी थे जो अपने गुलाबी जीवन में अभी प्रवेश ही कर पाए थे । किन्तु भगवान् ने सत्र को इच्छायोग की ही देशना दी - “ जहा सुहं देवाशुप्पिया......।” जितना चल सकते हो चलो, बढ़ सकते हो, बढ़ो। भी थे जो अपने जीवन श्रतिमुक्तकुमार श्राया, तो कहा- तू भी चल । मेघकुमार श्राया, तो कहा -- श्रा और चला चल । इन्द्रभूति श्राया और हरिकेशी श्राया - सब को बढ़े चलो की अमृतमयी प्रेरणा दी । चन्दन बाला श्राई तो उस का भी स्वागत। राह सब की एक है, परन्तु गति में सब के अन्तर है । कोई तीव्र गति से चला, कोई मन्द गति से । गति सत्र 1 हो । मन्दता और तीव्रता शक्ति पर आधारित है, यही इच्छायोग है, यही इच्छाधर्म है, यही सहजयोग की साधना है। गाथापति आनन्द श्राया । कहा- भंते ! श्रमण बन सकने की क्षमता मुझमें नहीं है। महाप्रभु ने अमृतमयी वाणी में कहा - " जहा सुहं । " श्रमण न सही, श्रावक ही बनो । सम्राट् श्रेणिक आया । कहा---भंते ! मैं श्रावक भी नहीं बन सकता। यहाँ पर भी वही इच्छायोग श्राया - " जहा सुहं ।” श्रावक नहीं बन सकते, तो सम्यग्दृष्टि ही बनो। जितनी शक्ति है, उतना ही चलो। महामेघ बरसता है और जितना पात्र होता है, वैसा और उतना ही जल प्राप्त हो जाता है। ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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