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________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ अर्थात् विषय वासना का नियमन ही नहीं किन्तु लम यानी दो जीवों की परस्पर कल्याण के निमित्त समर्पण की भावना । विवाह प्रथा का प्रारंभ तभी से हुआ। खेती का महत्त्व बैल पर निर्भर है। ऋषभदेव ने यह बात स्पष्ट कर जनता को वृषभ का महत्त्व समझाया। बैलों को नष्ट होने से बचाया। इसीसे संभवतः लोगों ने उन्हें वृषभदेव-ऋषभदेव के नाम से पहचाना।' जब लोगोंपर संकटों की परंपरा आने लगी, तब किंकर्तव्यमूढ बनी हुश्री जनता ने अपनी इच्छा से अपने लिये ऋषभदेव को राजा चुना । राजा बननेपर व्यक्ति संपूर्णतया प्रजा का सेवक बनता है, यह बात ऋषभदेव ने सिद्ध की । 'हा' कार 'मा' कार और 'धिक्' कार की नीति का अंकुश अब जनता पर न रहने के कारण राजदंड द्वारा उन्होंने लोगों के दुश्मनों का दमन किया। कुम्भकार, लुहार, चित्रकार, जुलाहा, और हजाम इन पाँच कारीगरों की सृष्टि की। पुरुषों की ७२ कलाएँ, स्त्रियों की ६४ कलाएँ और ब्राह्मी प्रमुख १८ लिपियाँ उन्होंने प्रचारित की। इस प्रकार जब लोग सुख चैनसे जिंदगी बसर करने में समर्थ हुए, तब उन्होंने आत्मज्ञान की ओर जनता को खींचा । सुनके पुत्रों में सबसे बड़ा भरत था और अन्य १०० पुत्र थे । ब्राह्मी और सुंदरी ये दो कन्याएँ थी । राजभार उनपर डालकर वे मुनि बने । मुनि बनने के लिये आसक्ति तोड़ना जरूरी है, इसलिये उन्होंने "वरसीदान" दिया । एक वर्ष तक याचकों को संतुष्ट करनेवाला महान् दान देने के पश्चात् वे मुनि बने। कितने ही राजा, सामंतादि उनके साथ मुनि बने। मुनि के महान् उग्र यम नियमों के पालन में उन्हें एक वर्ष तक शुद्ध आहार न मिल सका । अन्त में वैशाख शुदि ३ के दिन उनके प्रपौत्र श्रेयांसकुमार ने हस्तिनापुर में उन्हें इक्षुरस देकर पारणा करवाया । पूर्णज्ञान का साक्षात्कार पाने पर समोवसरण में जब वे विराजमान हो उपदेश देते थे तब चारों ओर के लोगों को वे हमारी ओर मुख कर ही बोल रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता था। इससे ही चतुर्मुखी ब्रह्म के रूप में लोग उन्हें मानने लगे । अष्टापद पर्वत के ऊपर उनका निर्वाण हुअा। यह वही पहाड़ है जिसे लोग कैलास भी कहते हैं। उसके ऊपर निर्मित ऋषभदेव के स्मारक की रक्षा के लिये भरत चक्रवर्ति ने पाठ सीढियाँ बनवाई, इसलिये उसे अष्टापद कहते हैं । अाज के बहुत से देशों के नाम ऋषभ देव के पुत्रों के नाम पर से ही हैं। ऋषभदेव श्रादिम तीर्थकर थे, इसी लिये 'श्रादम' के नाम से श्रादि पुरुष को लोग पहचानते हैं। सूर्यवंश की उत्पत्ति इन्हींसे है ऋषभदेव भरत सूर्ययशा चंद्रवंश की उत्पत्ति भी इन्हींसे ऋषभदेव बाहुबली चंद्रयशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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