SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ उल्लेख है। गूंदी नगर में हिंसा निवारण का प्रतिबोध देकर श्रावक बनाये। आपके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा लेख सं. १४७६ तक के प्रकाशित हैं। १४. धर्मशेखरसूरि - इनके द्वाराप्रतिष्ठित प्रतिमानों के लेख सं. १४८४-८९ - ९७ - १५०३-५-९ के प्रकाशित हैं। १५. धर्मसागरसूरि - आपके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमानों के लेख सं. १५१७ - २३ - ३७ के प्रकाशित हैं। के शिष्य विमलप्रभसूरि के पट्टधर सौभाग्यसागरसूरि के शिष्य राजसागर रचित प्रसन्नचंद्र राज रास सं. १६४७ थिरपुर और लव कुश रास सं. १६७२ जेठ सुदी तीज थिरपुर में रचित प्राप्त है। १६. धर्मवल्लभसूरि-- इनके द्वारा प्रतिष्टित प्रतिमा लेख सं. १५५३ के प्रकाशित हैं। गुर्वावलि में यहीं तक की प्राचार्यों की नामावलि मिलती है । अत्र अन्य साधनों के आधार से परवर्ती चायें आदि का परिचय दिया जा रहा है । १७. धर्मविमलसूरि--इनसे प्रतिष्ठित प्रतिमा का लेख सं. १५८७ का प्रकाशित है। संभव है यह धर्मवल्लभसूरि के पट्टधर हों । १८. धर्महर्षसूरि-पके प्रशिष्य से लिखित सं. १६७० की प्रति का पुष्पिकालेख जैन प्रशस्ति संग्रह में प्रकाशित है। इनके समकालीन पिप्पल गच्छ के अन्य श्राचार्य लक्ष्मीसागर का उल्लेख सं. १६३९ की प्रशस्ति में मिलता है। इन लक्ष्मीसागरसूरि के समय में ही पुण्यसागर ने नयप्रकाश रास सं. १६७७ एवं अंजना रास सं. १६८९ में रचीं । • पिप्पल गच्छ की इस त्रिभविया शाखा का प्रभाव साचोर और थिरपुर में अधिक रहा, ऐसा प्रतीत होता है। संभव है वहाँ के भंडारों में कुछ अधिक सामग्री पट्टावलि व इस गच्छ के रचित ग्रंथ प्राप्त हों। इस गच्छ की अन्य शाखाओं के कुछ आचार्यों के उल्लेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें यहाँ दिया जा रहा है। १. वीरदेवसूरि - इनका प्रशस्ति लेख सं. १४९४ का प्राप्त है। आपके शिष्य वीरप्रभसूरि के उल्लेख सं. १४५४-१४६१-१४६५ के ज्ञात हैं। इनके शिष्य " हीरानंदसूरि" अच्छे कवि थे। उनके रचित विद्याविलास पवाडो सं. १४८५, वस्तुपाल तेजपालरास सं. १४९४, दशाणभद्ररास, जम्बूविवाहलो, कलिकालरास सं. १४८९, स्थूलभद्र बारहमास प्राप्त हैं । श्राबू के सं. १५०३ के लेख में वीरप्रभ के साथ हीरसूर का उल्लेख है। संभवतः वे हीरसूर आप ही हों। २. गुणरत्नसूरि-- इनके प्रतिमा लेख सं. १५०७-१३-१७ के प्राप्त हैं। इनके समय में आणंद मेरु ने कल्पसूत्र व कालिकाचार्य कथा की भास बनाई। प्रतिमा लेखों से आपकी शाखा का नाम ' तालध्वजि व श्रापके पट्टधर गुणसागरसूरि [ले. सं. १५२४, २८, २९] होने का पता चलता है। गुणसागरसूरि के पट्टधर शांतिसूरि का सं. १५४६ का लेख प्रकाशित है। इनके अतिरिक्त और भी कई प्राचार्यों के नाम प्रतिमालेखों में मिलते हैं पर उनकी गुरुशिष्य परंपरा आदि का पता न मिलने के कारण यहां उनका उल्लेख नहीं किया गया। वास्तव में यह गच्छ १५ वीं १६ वीं शताब्दि में खूब प्रभावशाली रहा है। फलतः इन दो शताब्दियों के पचासों प्रतिमालेख प्रकाशित मिलते हैं। उनसे उन श्राचार्यों के समय का ही पता चलता है। विशेष विवरण तो पट्टावलियों के प्राप्त होने से ही मिल सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy