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________________ पिप्पल गच्छ गुर्वावलि श्री भंवरलालजी नाहटा मध्यकालीन जैन इतिहास के साधनों में पट्टावलियों-गुर्वावलियों आदि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैनधर्म के प्रचारक आचार्यों की परंपरा अनेक शाखाओं में विभक्त हो गई। फलतः जैन गच्छों की संख्या सौ से अधिक पाई जाती है। पिप्पलगच्छ उन्हीं में से एक है जिसके प्राचार्यों की नामावलि सम्बन्धी कई रचनाएँ गुरु स्तुति, गुरु विवाहलउ, गुरु नुं धूल, गुरु माल, आदि पाई जाती हैं। इस गच्छ की पट्टावलि विस्तार से प्राप्त नहीं हुई, अतः जैसा चाहिए इस गच्छ का इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता और न ही प्राप्त रचनाओं में प्राचार्यों का समय आदि ही दिया हुआ है। मैं ये रचनाएँ कुछ वर्ष पूर्व एक प्रति से नकल कर के लाया था। वे कई वर्षों के पश्चात् यहाँ प्रकाशित की जा रही हैं। प्राप्त प्रतिमा लेखों से स्पष्ट है किये रचनाएँ पिप्पल गच्छ की त्रिभबिया शाखा से सम्बन्धित हैं। इस गच्छ की तालध्वजी आदि अन्य शाखाएँ भी थीं, पर उनकी पट्टावलियाँ प्राप्त नहीं हैं। प्रतिमा-लेखों आदि से कुछ प्राचार्यों के नामों का ही पता चलता है। संस्कृत गुरु स्तुति से विदित होता है कि यह गच्छ चतुर्दशी को पाक्षिक पर्व मानता था। बृहद्गच्छ (बड़ गच्छ) की पट्टावलि से स्पष्ट है कि पिप्पल गच्छ वास्तव में उसकी एक शाखा है। जिस प्रकार उद्योतनसूरि ने बड़वृक्ष के नीचे आठ प्राचार्यों को श्राचार्यपद दिया और उनकी संतति बड़गच्छीय कहलाई, इसी प्रकार शांतिसूरि ने भी सिद्ध श्रावक कारित नेमिनाथ चैत्य में आठ शिष्यों को आचार्यपद दिया था। संभवतः पिप्पलक स्थान या पीपल वृक्ष के कारण इस गच्छ का नाम पिप्पलक या पीपलिया गच्छ पड़ा। खरतर गच्छ में भी इसी नाम की एक शाखा जिनवर्द्धनसूरि से चली। वह मालवे के किसी पीपलिया स्थान विशेष से सम्बन्धित प्रतीत होती है। पिप्पल गच्छ का उसी स्थान से सम्बन्ध है या नहीं, यह अन्वेषणीय है। इस गच्छ के प्रभावक आचार्य शांतिसूरि हुए । संस्कृत गुरु स्तुति के अनुसार चक्रेश्वरी देवी से श्राप पूजित थे और पृथ्वीचंद्र चरित अापने बनाया । जैसलमेर भंडार की सूची के अनुसार प्रस्तुत पृथ्वीचंद्र चरित की वीर सं. १६३१ वि. सं. ११६१ में मुनिचंद्र के लिये रचना हुई । ग्रंथ परिमाण ७५०० श्लोकों का है । प्राकृत भाषा में यह रचा गया और इसकी १६० पत्रों की ताड़पत्रीय प्रति सं. १२२५ में पाटण में लिखित जैसलमेर भंडार में प्राप्त है। "इगतीसाहिय सोलस सएहिं वासाण निव्वुए वीरे। कत्तिय चरम तिहीए कित्तियरिक्खे परिसमत्तं ॥ जो सव्वदेव मुणिपुंगव दिक्खिएहिं साहित्ततक्क समएसु सुसिक्खिएहिं ॥ संपावित्रो वर पयं सिरिचंदसूरि पूजहिं पक्खमुवगम्म गुणेसु भूरि ॥ संवेगं बुनिवा(या)णं एवं सिरि संतिसूरिणा तेण। वजरियं वरचरियं मुणिचंदविणेयं वयणाश्रो ॥" उपर्युक्त प्रशस्ति से स्पष्ट है कि शांतिसूरि को सर्वदेवसूरि ने दीक्षित किया था और उन्होंने साहित्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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