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________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ ढाई सौ वर्ष बाद कुछ कारणों से संघभेद हुआ था। ऐसा मालूम होता है कि महावीर के निर्वाण की घटना के समान ही यह घटना उक्त सूत्रों में या तो निराधार ढंग से जोड़ दी गई या पिटकों के संकलन काल में श्वेताम्बर-दिगम्बर संघभेद की घटना को पीछे से विपर्यास. रूप में ला दिया गया। उक्त कथन में गृहस्थ शिष्यों का श्वेतवस्त्रधारी विशेषण सूचित करता है कि श्वेताम्बर साधुओं को भूल से गृहस्थ के रूप में समझ लिया गया है; पर इस उल्लेख से इतना तो मानना पड़ेगा कि पालि के ग्रन्थ जैनों के संघभेद से परिचित थे, चाहे वह पहले हुआ हो या पीछे।। पालि ग्रन्थों से यह भी सूचित होता है कि भगवान महावीर और उनके अनुयायियों के विहार क्षेत्र अंग, मगध, काशी, कोशल तथा वज्जि, लिच्छिवि एवं मल्लों के गणराज्य थे। राजगृह, नालन्दा, वैशाली, पावा और श्रावस्ती में जैन लोग प्रधान रूप से रहते थे तथा वैशाली के लिच्छिवि जैन धर्म के प्रबल समर्थक थे। ____मज्झिमनिकाय और अंगुत्तर निकाय के कतिपय सूत्रों में लिखा है कि "निगण्ठ लोग महावीर को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अपरिमित ज्ञान एवं दर्शन से युक्त, चलतेफिरते, खड़े रहते, सोते, जागते, अपरिशेष ज्ञानदर्शन से युक्त मानते थे'" । यह कथन जैनागमों से समर्थित है और जैन मान्यता इस के अनुरूप है। यहां अपरिशेष ज्ञानदर्शन जैनागमों के केवलज्ञान और केवलदर्शन को सूचित करता है। सर्वज्ञता के सम्बंध में भग० बुद्ध का यह मत था कि वे न तो स्वयं सर्वज्ञ होने का दावा करते थे और न दूसरों को ही वैसा मानते थे। सन्दकसुत्तर में उनके शिष्य आनन्द ने सर्वज्ञता का इस प्रकार परिहास किया है : एक शास्त्रसर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अशेष ज्ञानदर्शन वाला होने का दावा करता है, तो भी वह सूने घर में जाता है, वहां भिक्षा भी नहीं पाता, कुक्कुर भी काट खाता है, सर्वज्ञ होने पर भी स्त्री, पुरुषों के नाम गोत्र पूछता है, ग्राम निगम का नाम और रास्ता पूछता है, 'आप सर्वज्ञ होकर यह क्यों पूछते हैं' यह कहे जाने पर कहता है कि सूने घर में जाना विहित था इसलिए गये, भिक्षा मिलनी विहित न थी, इसलिए न मिली, कुक्कुर का काटना विहित था इसलिए उसने काटा आदि। यह आलोचना हमें सूचित करती है कि उस समय तथोक्त सर्वज्ञता की मान्यता के साथ साथ उसकी खरी आलोचना भी होने लगी थी। दर्शन भगवान् महावीर की दार्शनिकता की पृष्ठभूमि क्रियावाद (कर्मवाद) था। विनयपिटक के महावग्ग ग्रन्थ में सिंहसेनापति के प्रसंग में तथा अंगुत्तर निकाय में निगण्ठमत को किरियावाद (क्रियावाद) नाम से कहा गया है। इस वाद का अर्थ है "सुख-दुखं सयं कत" अर्थात् सुखदुःख का कर्ता जीव स्वयं है। सूत्रकृताङ्ग में यही बात यों कही गई है “ सयं कडंच दुक्खं नाण्णकडम् " अर्थात् जीव स्वयं किये गये सुखदुःख का कर्ता एवं भोक्ता है, इसके सुखदुःख का विधाता और कोई नहीं। क्रियावाद की इस निगण्ठ मान्यता को मज्झिम निकाय के देवदहसुत्त में अच्छी तरह रखा गया है: यह पुरुष पुद्गल जो कुछ भी सुखदुःख या अदुःख असुख अनुभव करता है वह सब पहले (पुरुष-पूर्व) किये गये कर्मों के कारण ही। इन पुराने कर्मों का तपस्या द्वारा अन्त करने से तथा नये कर्मों को न करने से, भविष्य में विपाक रहित १. चूल दुक्खन्धसुत्त, चूलसकुलदायिसुत्त; अंगुत्तरनिकाय III पृ. ७४, IV, पृ. ४२८ । २. मज्झिमनिकाय, ७६ । ३. भाग ४, पृष्ठ १८०-१८१ । ४. अंगुत्तर निकाय, भाग ३, पृ. ४४० । ५. १. १२. III Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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