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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ
पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि कठोरव्रतधारी महान् तपस्वी जैन आचार्य श्री विजयवल्लभ में साधु होते हुए भी शिष्ट मधुर हास का अभाव न था। दर्शनार्थी उनके स्वभाव की इस मधुरता से मुग्ध हो जाया करते थे। एक बार श्राप गंगानगर (बीकानेर राज्य) में विराजमान थे और वहां के श्रीसंघ ने मुझे भाषण के लिए निमंत्रित किया था। जब मैं वहां पहुंचा तो उस समय प्राचार्यश्रीजी के पास कुछ प्रतिष्ठित सजन व विद्वान् पंडित बैठे थे। मैंने विनयपूर्वक वन्दना कर सुखसाता पूछा। भलीभांति जानते व पहिचानते हुए भी स्मितमुख से पूछा-'कौन ?' मैंने मन में विस्मित होते हुए कहा-'विनीत पृथ्वीराज ।' हंसते हुए कहने लगे, 'अरे, नाम तो पृथ्वी का राजा और मालिक एक झोपड़ी के भी नहीं। ठीक है, सरस्वती पुत्रों से लक्ष्मी कुपित रहती है।' सभी उपस्थित जन खिलखिला कर हंस पड़े और गुरुदेव से ही मेरा शेष परिचय पूछा।
उन के नियम व व्रत वज्रवत् कठोर थे, परन्तु यह निश्चय है कि उनका हृदय फूल की पंखड़ी से भी अत्यन्त कोमल था। दुःखी, विपत्तिग्रस्त व साधनहीन मानव को देख कर उनका हृदय दयार्द्र हो रोने लगता था। ग़रीब छात्रों के लिए अश्रुपात करनेवाले मैंने अपने जीवन में दो विशेष महापुरुष देखे हैं :पं. मदनमोहन मालवीय व गुरुदेव विजयवल्लभ। विद्या की साधना में किसी को भी कठिनाई में पड़ा देख उन के नेत्र अश्रुरूपी मोतियों को बिखेरने लगते थे और वे मोती उस व्यक्ति के लिए यथार्थ मोती बन जाते थे क्योंकि गुरुदेव की प्रेरणा से उदाराशय श्रावक उसकी द्रव्यसहायता करने का वचन देते थे। अकाल, बाढ़ आदि के समय में भी दुःखी मानवजाति की सहायता के लिए वे दर्द भरी अपील किया करते थे।
आचार्यश्री जी में स्वदेशप्रेम भी कूटकूट कर भरा था। असहयोग आन्दोलन के समय से ही आप ने शुद्ध खादी का उपयोग शुरु किया और सरकार की अहिंसक व मद्यनिषेध संबंधी प्रवृत्तियों में सहायता करते रहे।
वे समन्वय, सद्भावना और एकता के समर्थक रहे हैं। उन्होंने जगत् को माया बताकर उसका विरोध नहीं किया, प्रत्युत साधुता व संसार का सुमधुर समन्वय किया। वे एक विरक्त कर्मयोगी थे। जो लोग उनके चरित्र पर यह आपत्ति उठाते हैं कि उन्हों ने साधु होकर प्रवृत्तिमय धर्म को जागरित किया, वे भूल जाते हैं कि स्वार्थभावनारहित लोककल्याण की प्रवृत्तियों का समर्थन भगवान् ऋषभदेव के जीवनचरित्र लेखक श्री जिनसेन व श्री हेमचन्द्र भी करते हैं। कर्तव्य की अपेक्षा से आवश्यक प्रवृत्तियों का उपदेश जैन धर्म के प्रतिकूल नहीं। पं. सुखलालजी ने ठीक ही लिखा है :--"कोई भी आवश्यक व विवेकयुक्त प्रवृत्ति सच्चे त्याग जैसी ही कीमती है।"
रचनात्मक कार्य
श्राचार्यश्री जी की जीवन घटनात्रों और चरित्र की विशेषताओं से एक निष्कर्ष यह निकलता है कि वे युवा होते हुए भी बुद्धि के परिपाक में वृद्धों के समान थे और वृद्ध होते हुए भी हृदय के अदम्य उत्साह और कार्यशक्ति से नवयुवकों को भी पराजित कर देते थे। वे केवल बाह्य और आभ्यंतर तप की श्राराधना करनेवाले तथा अपनी दैनिक प्रवृत्तियों को शुष्क क्रियाकांड या उपाश्रय की सीमा तक ही सीमित रखनेवाले नहीं थे, बल्कि समाज को वास्तविक प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करना चाहते थे। उन्होंने उद्घोषणा की थी, “समाज का उत्थान मात्र बातों से नहीं होगा और न होगा उपाश्रय में बैठकर ब्याख्यान देने से ही; जब तक रचनात्मक कार्य न होगा, समाज में जागृति भी नहीं हो सकती।" इसी उच्च ध्येय से वे दीक्षाकाल से लेकर देवलोकगमन तक अनासक्त भाव से शासन व संघ की सेवा करते रहे।
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