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________________ दर्शन-दिग्दर्शन इन्द्रियों और अर्थ (इन्द्रियों के विषय) का विवेचन है व दूसरे आहनिक में बुद्धि और मन की समीक्षा के साथ जीव के पुण्य पाप के कारण व विशिष्ट देह संयोग पर विचार-विमर्श किया गया है। चौथे अध्याय के प्रथम आहनिक में प्रकृति, प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म) कर्म फल, दु:ख और अपवर्ग (मुक्ति) की विशद परीक्षा के साथ सत्ताओं की उत्पत्ति से संबंधित आठ सिद्धान्तों की भी समीक्षा है। दूसरे आहिनक में पूर्ण पदार्थों की परीक्षा के साथ परमाणुओं की अविभाज्यता पर विचार, पदार्थो के नित्यत्व के खण्डन का पुनर्विचार और तत्वज्ञान प्राप्त करने तथा उस ज्ञान का संबर्धन करने के उपाय बताए हैं। पांचवें अध्याय के दो आहिनकों में क्रमशः जाति और निग्रह स्थान के भेद और लक्षण बताए हैं। महर्षि गौतम द्वारा प्रतिपादित न्याय सूत्र, पक्षितस्वामी वात्स्यायन के न्याय भाष्य, उद्योतकर के "न्याय वार्तिक" वाचस्पति प्रथम की तात्पर्य टीका एवं उदयन की "तात्पर्य परिशुद्धि" में विकसित हुए हैं और ये चारों ग्रंथ "न्याय चतुग्रंथिका" के नाम से जाने जाते हैं। बाद में भी न्याय सूत्र पर विस्तृत टीकाएं लिखी जाती रही है। . न्याय सूत्र में संपूर्ण वस्तु जगत का विश्लेषण न होकर मात्र निःश्रेयस की प्राप्ति का विवेचन है। निःश्रेयस में उच्च की प्राप्ति प्रमेय की सही ज्ञान से व निम्न की प्राप्ति प्रमाण आदि से होती है, इस दृष्टि से न्याय सूत्र मोक्षशास्त्र के साथ दूसरे शास्त्रों को समझने का साधन भी है। जिसमे आध्यात्मिक और बौद्धिक दोनों पक्षों पर समान रूप से विचार किया गया है। न्याय सूत्र के विषयों का सम्यक ज्ञान होने से मिथ्यात्व का नाश होता है, राग द्वेष, मोह से छुटकारा मिलता है, पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है, समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है और अपवर्ग की प्राप्ति होती है। महर्षि गौतम के अनुसार ज्ञान के चार स्रोत हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन्द्रिय और विषय के संयोग से उत्पन्न अभिन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है। अनुमान पूर्ववत, शेषवत और सामान्यतोदृष्ट के आधार पर किया जाता है। ज्ञात वस्तु सें अज्ञात को सिद्ध करना उपमान व आप्त पुरुष के उपदेश को शब्द प्रमाण कहते हैं। न्याय शास्त्र में बारह प्रमेय आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष प्रत्यभाव, फल, दुःख, अपवर्ग माने गए है जिनमें प्रथम और अन्तिम प्रमेय विशेष महत्व के है । आत्मा के चिन्ह इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख दुःख और ज्ञान हैं व इन्द्रियों (घाण, रसना, चक्षु, त्वचा और स्रोत) व उसके विषय गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द का आश्रयस्थल शरीर है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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