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________________ स्व: मोहनलाल बीठिया स्मृति ग्रन्थ कहां है ? उसका सजने का भाव ही चला गया है। सजने में 'मैं दूसरों को कैसा लगता हूं ?” भाव प्रमुख रहता है । साधु को दूसरों से प्रयोजन ही नहीं है, वह जैसा है वैसा ही है । महावीर मुनिराज वर्द्धमान नगर छोड़ बन में चले गये। पर वे वन में भी कहां रहे ? वे तो आत्मवासी हैं। न उन्हें नगर से लगाव है, न वन से; वे तो दोनों से अलग हो गये हैं, उनका तो पर से अलगाव ही अलगाव है । रागी वन में जायेगा तो कुटिया बनायेगा, वहां भी घर बनायेगा, ग्राम और नगर बसायेगा, वहां भी घर बसायेगा, ग्राम और नगर बसायेगा; भले ही उसका नाम कुछ भी हो, है तो वह घर ही । रागी वन में भी मंदिर के नाम पर महल बनायेगा, महलों में भी उपवन बनायेगा। वह वन में रहकर भी महलों को छोड़ेगा नहीं, महल में रहकर भी वन को छोड़ेगा नहीं । उनका चित्त जगत के प्रति सजग न होकर आत्मनिष्ठ हो गया था। देश-काल की परिस्थितियों के कारण उन्होंने अपनी वासनाओं का दमन नहीं किया था। उन्हें दमन की आवश्यकता भी न थी, क्योंकि वासनाएं स्वयं अस्त हो चुकी थीं। उन्होंने सर्वथा मौन धारण कर लिया था, उनको बोलने का भाव भी न रहा था । वाणी पर से जोड़ती है, उन्हें पर से जुड़ना ही न था । वाणी विचारों की वाहक है, वह विचारों का आदान-प्रदान करने में निमित्त है, वह समझने-समझने के काम आती है; उन्हें किसी को समझाने का राग भी न रहा था, अतः वाणी का क्या प्रयोजन । वाणी उन्हें प्राप्त थी पर वाणी की उन्हें आवश्यकता ही न थी । एक अघट घटना महावीर के जीवन में अवश्य घटी थी। आज से २५०२ वर्ष पहले दीपावली के दिन जब वे घट (देह) से अलग हो गये थे, अघट हो गये थे, घट घट के वासी होकर भी घटवासी भी न रहे थे, गृहवासी और वनवासी तो बहुत दूर की बात है, अन्तिम घट (देह) को भी त्याग मुक्त हो गये थे । इस प्रकार जगत से सर्वथा अलिप्त, सम्पूर्णतः आत्मनिष्ठ महावीर के जीवन को समझने के लिए उनके अन्तर में झांकना होगा कि उनके अन्तर में क्या कुछ घटा ? उन्हें बाहरी घटनाओं से नापना, बाहरी घटनाओं को बांधना संभव नहीं है । यदि हमने उनके ऊपर अघट-घटनाओं को थोपने की कोशिश की तो वास्तविक महावीर तिरोहित हो जायेंगे, वे हमारी पकड़ से बाहर हो जायेंगे; और जो महावीर हमारे हाथ लगेंगे, वे वास्तविक Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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