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________________ अतिक्रमण का शब्दार्थ सीमित नहीं है। जो निषिद्ध है उसका निष्पादन, किसी के अधिकार और स्वत्व का हरण, सीमाओं और मर्यादाओं का उल्लंघन, अतिरिक्तता और पापाचरण अतिक्रमण की परिधि में ही आते हैं। आचरण और व्यवहार की सीमाएं धर्म द्वारा निर्धारित हैं । उसके विपरीत सारे क्रियाकलाप अतिक्रमण हैं। उनके अनुरूप स्वभाव में न जीना भी अतिक्रमण की कोटि में ही आता है। उन सीमाओं की पहचान व्रतों से होती है । तभी व्रतों के प्रति संकल्पित होने का उदबोधन भारतीय दर्शन में विद्यमान है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - महाव्रत हैं पूर्ण पालन करने वाले अनगार या मुनि होते हैं। गृहस्थ क्षमतानुसार संकल्प ग्रहण करते हैं, सीमाएं निर्धारित करते हैं । अतः आगार धर्म पालन करने वाले श्रावक होते हैं। देश की सीमाओं की भांति ही इन संकल्पित सीमाओं की सुरक्षा होनी चाहिए। सब जीव जीना चाहते हैं । मरना कोई नहीं चाहता। हिंसा सुख से जीने के अधिकार का अतिक्रमण है। आत्म समानता की दृष्टि से ही महावीर ने कहा कि पुरुष ! तू जिसे मारता है, वह स्वयं तू ही है । भय से मुक्त करें सबको। अभयदान सर्वश्रेष्ठ दान है। सत्य विश्वास है, यथार्थ है । उसका उल्लंघन कितने ही निर्दोषों को आरोपी बना देता है । कलंकित कर देता हैं । कई समस्याओं को जन्म देता है। व्यक्ति के विचार और व्यवहार, अभिव्यक्ति और आचरण में असीम अन्तराल आ रहा है । वह मात्र वाचाल है, विश्वसनीय नहीं । सत्य के अतिरिक्त कथन और कार्य वस्तुतः उसका अतिक्रमण है । चोरी के कितने ही रूप और तरीके सामने आ रहे हैं । माया -छल और झूठ का सहारा लेते हैं। अधिकारों के अतिक्रमण से घोटाले होते हैं। अधिक ब्याज का लालच देकर ऋण प्राप्त करने वाले मूल ही डकार जाते हैं । अन्धेरे में छुपकर कुछ ले जाने वाला तो स्वयं को बहुत निम्न श्रेणी में मानता है । अनेक नियमों का उल्लंघन करते हुए सत्तासीन उजालों में करोड़ों हड़प जाते हैं। उसका औचित्य ठहराते हैं अथवा स्वयं को अलिप्त सिद्ध करने की उठा-पटक में लग जाते हैं। क्या वह सब उस शपथ का अतिक्रमण नहीं है जो सत्ता हस्तगत करते समय ली जाती है। दर्शन-दिग्दर्शन मनुष्य की काम वासना के कुत्सित परिणाम समाज को भोगने न पड़े, इसके लिए विवाह पद्धति लागू हुई। उसमें भी काम भोग सीमित करने का प्रावधान व्रतों में हैं। समाज स्वच्छ और स्वस्थ रहता है। वर्तमान में दुराचरण ने कई असाध्य रोगों को जन्म Jain Education International 2010_03 २८ १८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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