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________________ स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ अहंकार - अहम की भावना। अहंकार धन का भी हो सकता है। मेरे सामने सभी तुच्छ है, मेरी बराबरी कोई नहीं कर सकता। मैंने जो कह दिया ब्रहम वाक्य कह दिया। मेरे सामने भला कौन टिक सकता है, मेरा नाम और यश तो दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है - मैं तो मैं ही हूं। इस अभिमान ने रावण को नष्ट कर दिया। हरिण्याकुश को समाप्त कर दिया - जो बहुत बड़े उपासक थे - जो उपासना में अव्वल थे - नष्ट हो गये। फिर यह अहंकार किस काम का। सही उपासना करनी है तो सरल बनकर अपने भीतर के अच्छे भावों को प्रकट करके अपने - आप को उस परमपिता को समर्पित कर दो - कि मेरा कुछ भी नहीं जो कुछ भी है, वह तुम्हारा है - यही सच्ची उपासना है। उपासना - करते समय तुम इतने बढ़ते जाओ कि पीछे की तरफ मत देखो कि पहले तुम क्या थे और आगे क्या बनने जा रहे हो - अपने वर्तमान को देखो एवं अनुभव करो कि जीवन सेवा लेने में नहीं बल्कि सेवा देने में समर्थवान है। भीतर में भय का त्याग करो और वीरत्व की भावनाओं का समावेश करो कि दूसरों की रक्षा करना ही मेरा परम धर्म है। मंगल कामना करो यह मन, यह मन सहानुभूति से परिपूर्ण हो - किसी भी तरह की घृणात्मक भावनाओं से मुक्त हो एवं इतना साहसी बन जाओ कि किसी की भी सेवा करने में तत्पर रहो। __ सहनशीलता आभूषण है जिस तरह शरीर की शोभा बढ़ाने में आभूषण काम करते है उसी तरह सहनशीलता उपासना की सबसे बड़ी कसोटी है जो तन एवं मन को परिमार्जित करती है। अगर तुम्हारा कोई अनिष्ट कर रहा हो, तुम्हारे बारे में अन्याय की बाते कर रहा हो तो तुम उसे सहानुभूति दिखलाओ। देखना वह तुम्हारे प्रति समर्पित हो जायेगा। बन्धु जगत मिथ्या है - इसलिए उपासना का अनुसरण हृदय में प्रेम-भाव से मुक्त होकर विश्वास को प्रज्ज्वलित करके मुक्त भावों से सरल एवं संयत बनकर इतने निष्ठावान बन जाओं कि तुम्हारे लिए यह जगत सत्य बन जाये। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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