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________________ दर्शन-दिग्दर्शन के आर्थिक स्वरूप में व्याप्त पारिभाषिकता का उजागरण करना वस्तुतः हमारा मूल अभिप्रेत है। आवश्यक आवश्यक शब्द के मूल में 'अवश' की सार्थकता है। वे सभी जीवंत योग और प्रयोग जिनसे प्राणी - श्रावक और श्रमण इन्द्रिय - विषयों के वश में न रहे वस्तुतः आवश्यक कहलाता है। संसार की समस्त धार्मिक मान्यताओं में आवश्यक जैसे अभिप्राय को महत्त्व दिया गया है। इससे अनुप्राणित साधक अथवा श्रावक अपनी जीवन चर्या को पेखता और परखता है। वैदिक परम्परा में इसे 'संध्या' तथा बौद्ध परम्परा में 'उपासना' कहा गया है। पारसी धर्मावलम्बी इसे 'खोर-देह अवस्ता', यहूदी और ईसाई मान्यताओं में 'प्रार्थना' तथा इस्लाम में इसे कहा गया है - 'नमाज'। जैन धर्म में इस प्रकार के अभिप्रेत को 'आवश्यक' संज्ञा से अभिहित किया गया है। दिगम्बर आम्नाय में षट आवश्यकों की संज्ञायें निम्नांकित है - १) देवदर्शन २) गुरुप्राप्ति ३) संयम ४) तप ५) स्वाध्याय ६) दान जबकि श्वेताम्बरी परम्परा में षडावश्यक निम्नरूप में उल्लिखित है। यथा - १) सामाषिक २) चतुविंशतिस्तव ३) वंदन ४) प्रतिक्रमण ५) कार्यात्सर्ग ६) प्रत्याख्यान Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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