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________________ स्वः मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ 5052368500 भगवान महावीर ने वैश्यों को बताया कि वैभव न्याय-युक्त हो, इतना ही काफी नहीं है। वैभव का परिमाण और मर्यादा भी निश्चित होनी चाहिए। उन्होंने वैश्यों को न्याय मार्ग पर चलने, मर्यादा पूर्वक धनोपार्जन करने और अंत में सब कुछ त्याग कर अकिंचन व्रत पालन करने का उपदेश दिया। शुद्रों के लिए उनका उपदेश था कि अच्छे कर्म करने से वे भी ब्राह्मणों के समान पूज्य बन सकते हैं। भगवान महावीर ने यज्ञ-मार्गों का निषेध नही किया था, बल्कि यज्ञ में होने वाली हिंसा को छोड़ने का उपदेश दिया था। उन्होने तपस्या रूपी यज्ञ में पाप-कर्मों को जला देने का आवाहन किया। उनके अनुसार जीवात्मा ही अग्निकुंड है, मन वचन कार्य की प्रवृत्ति ही है। भगवान महावीर से पहले आरण्यक ऋषियों में यज्ञ-यागादि अनुष्ठान सांसारिक सुख के लिए अनुपादेय है, यह धारणा प्रचलित थी। ये आवश्यक ऋषि सांसारिकता से दूर गहन तपस्या मे लीन रहते थे और किसी अज्ञात गुफा में छिपे गूढ़ धर्म तत्व की खोज मे लगे रहते थे। भगवान महावीर ने उस गूढ़ धर्म-तत्व को आम लोगों के बीच ले जाकर सर्वोदय तीर्थ का प्रवर्तन किया। उनके उपदेशों से बाहयाचार की बजाय ध्यान, स्वाध्याय, विनय, सेवा आदि नाना प्रकार की तपस्याओं का धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में प्रचार हुआ। ऋषभदेव से लेकर महावीर तक चौबीसों तीर्थकरों के जीवन-चरित्र जैन साहित्य में उपलब्ध होते है, परंतु ऋषभदेव के मुकाबले बाकी तीर्थकरों के जीवन चरित्र काफी छोटे हैं, यहां तक कि नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के चरित्र भी जिनका अन्य तीर्थकरों की अपेक्षा कहीं अधिक विवरण मिलता है। जैन पुराणो के अनुसार चक्रवर्ती संपूर्ण भरत-क्षेत्र के छहों खंडों का एकाधिकार प्राप्त सम्राट होता है, जिसके अंतर्गत बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा होते हैं। उसे नवनिधि और चौदह रत्न प्राप्त होते हैं। उसकी सेना मे चौरासी करोड़ योद्धा, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी और उतने ही रथ होते हैं। जैन लोग सम्राट भरत को इस युग का प्रथम चक्रवर्ती मानते हैं। भरत चक्रवर्ती भगवान ऋषभदेव के सबसे बड़े पुत्र थे, जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इसके प्रमाण में जैन श्रीमद भागवतपुराण को उदधृत करते है। भागवत के अनुसार महायोगी भरत ऋषभदेव के सौ पुत्रों मे सबसे बड़े थे। और उन्हीं के कारण यह देश भारतवर्ष कहलाया। आधुनिक लेखकों की इस राय से जैन लोग कतई सहमत नहीं है कि जैन-धर्म की उत्पत्ति ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध असंतोष की भावनाएं फैल जाने के कारण हुई। पश्चिमी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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