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________________ दर्शन दिग्दर्शन 888862388 262028888888888856000838 मानी जानी चाहिए, क्योंकि वे असर्वज्ञ आचार्यो की देन है और उनका धर्म के मूल उद्देश्य-मानव के नैतिक विकास, बंधनमुक्ति एवं सुसंवर्धन की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं विद्वानों के उपरोक्त मत के बावजूद भी यह पाया गया है कि प्राचीन जैन साहित्य में आचार और विचारगत मान्यताओं के साथ भौतिक जगत सम्बन्धी विवरण और व्याख्याएं तृतीयांश मात्रा में है। फलतः यह स्वाभाविक है कि क्या ये सभी विवरण विज्ञान सम्मत नहीं हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में जैन धर्म के मूल एवं बुद्धिवादी युग के साहित्य में उपलब्ध सामग्री पर दृष्टिपात करना होगा। इससे स्पष्ट है कि जैन आचार और विचारों की पृष्ठभूमि वैज्ञानिक प्रक्रिया पर ही आधारित है। यह अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा के रूप में चतुश्चरणी है। यही कारण है कि उसके बहुसंख्यक वर्णन वर्तमान वैज्ञानिक अन्वेषणों से संगत सिद्ध हो रहे हैं। इस आधार पर जैन धर्म विश्व का सर्वाधिक विज्ञान सम्मत धर्म है। वस्तुतः विज्ञान धर्म का पूरक एवं परिवर्धक ही सिद्ध हुआ है । इसका गुण विशेषित नाम स्वयं इसकी वैज्ञानिकता प्रमाणित करता है। वस्तुतः किसी भी तन्त्र की वैज्ञानिकता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि उस तन्त्र में बुद्धिवाद के साथ कितना प्रयोगवाद समाहित है ? वस्तुतः जहां विज्ञान क्या है' प्रश्न का उत्तर देता है, वहीं धर्म ‘क्या होना चाहिये' का उत्तर देता है। विज्ञान व्यावहारिक है और धर्म आदर्श है। आइंस्टीन ने इसे अपनी भाषा में व्यक्त करते हुए कहा है कि 'विज्ञान का अल्प ज्ञान हमें धर्म से दूर करता है पर उसका अच्छा ज्ञान हमें धार्मिक ही बना देता है ।' हमारा सुसंस्कृत व्यवहार ही तो हमें आदर्श की और ले जाता है। जैन शास्त्रों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति का पोषण जैन-धर्म अनीश्वरवादी है। अंतरिक्ष शास्त्री कार्लसागन ने ईश्वरवाद को परम तथ्य के बदले मात्र उपकल्पना बताया है। उन्होंने इसके विरोध में वैसे ही अनेक तर्क दिए हैं जो हमारे न्यायशस्त्रियों ने एक हजार वर्ष से भी पूर्व दिए थे। उन्होने गणितीय अनंत गुण श्रेणी के मान की सान्तना के अतिरिक्त तर्क से भी ईश्वरवाद को अमान्य किया है। फलतः स्वयं के भाग्य विधाता के लक्ष्यवेधक के रूप में जैन-धर्म वैज्ञानिक हो, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? जैनों के प्राचीन शास्त्र मनुष्य को वैज्ञानिक बताकर धर्मरुचि जगाते हैं। जन्मते ही मनुष्य बाह्मजगत को पहले देखता है, अन्तर्जगत की बात बाद में आती है, अतः प्रकृति से ही Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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