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________________ 288888 दर्शन दिग्दर्शन अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थ सुअर्थ रहे, वहां तक तो कोई चिन्ता नहीं, परन्तु जहां अर्थ अनर्थ करने वाला बन जाता है, तब विचारणीय स्थिति बन जाती है, इस संदर्भ में भिक्षु ग्रन्थरत्नाकर का निम्नांकित पद्य मननीय है - प्रेम घटारण सजना रो, दुरगत नो दातार । अणचिन्त्या अनर्थ करे, घन ने पड़ोधिकार ।। जो स्वजनों के प्रेम को घटाता है, जीव की दुर्गति करता है, अचिन्तित अनर्थ पैदा करता है, ऐसे धन को धिक्कार। अर्थार्जन में साधनशुद्धि का संकल्प भी अपरिग्रहीवृत्ति को पुष्ट करता है । दूसरों का शोषण कर पैसा इकट्ठा कर धनवान बन जाना और नाम ख्याति के लिए कुछ दान देकर दानी कहलाना कौन-सा स्पृहणीय कार्य है ? ऐसे दान को दूर से ही नमस्कार कर पहले अर्थार्जन की शुद्धि पर ध्यान दिया जाना चाहिए, धोखा-धड़ी और शोषण का परित्याग किया जाना चाहिए। व्यापारी ने नयी-नयी कपड़े की दुकान खोली। बार-बार उसके मन में एक ही विचार आता था कि दुकान का विकास कैसे हो? कमाई ज्यादा कैसे हो? येन-केन प्रकारेण वह धनाढयों की सूची में अपना नाम पढ़ने के लिए समुत्सुक था। __ आवश्यकता की पूर्ति एक बात है और आकांक्षा की पूर्ति दूसरी बात है । आवश्यकता पूर्ति की मांग को असंगत नहीं कहा जा सकता। किन्तु महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति और वह भी अवैध तरीकों से समुचित कैसे हो सकती है? रात्रि का प्रथम प्रहर। व्यापारी ने दुकान को बढ़ाया (बन्द किया) और घर चला आया। भोजन करने के बाद शयनार्थ वह शय्या पर पहुंच गया। वह लेटा, पर नींद नहीं आई। संकल्प-विकल्पों का सिलसिला चालू था। उन्हें विराम भी उसने कहां दिया था? न तो उसने शयन से पूर्व नमस्कार महामंत्र जैसे पवित्र मन्त्र का स्मरण किया और नही उसने आत्म निरीक्षण का प्रयोग किया। सत्साहित्य का स्वाध्याय भी नहीं किया। परिग्रह (कमाई) का संकल्प उसकी तृष्णाग्नि को प्रदीप्त कर रहा था। करवटें बदलते-बदलते आखिर उसे नींद अवश्य आ गई, पर गहरी और निश्चिन्तता भरी नींद का सुख उसे सुलभ नहीं हुआ। जिन विचारों की उधेड़बुन में वह सोया था, उन्हीं को अब वह चलचित्र के दृश्यों की भांति सपने के रूप में देखने लगा। वह देखता है कि प्रातःकाल का समय हो गया है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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