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________________ स्वः मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ प्रयोजनवश गृहस्थ के घर जाए तो मुनि उचित स्थान पर खड़ा रहे तथा बोलना आवश्यक हो तो सीमित बोले ।' साधु अनेक कुलों में जाता है। अनेक व्यक्तियों से सम्पर्क साधता है। कानों को अनेक बातें समनने को मिलती हैं। आंखों को अनेक दृश्य देखने को मिलते हैं। किन्तु साधक के लिए दृष्ट तथा श्रुत सभी बातें कहना उचित नहीं है। यह विचारधारा अहिंसा की सबल भित्ति पर तो सुस्थिर है ही, पर इस नीति से संघीय तथा सामाजिक जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध भी मधुर बने रहते हैं। साधु मनोनुकूल आहार तथा अन्य वांछित पदार्थ न मिलने पर बकवास न करे । उसका वाक-प्रयोग संयत हो। मुमुक्ष मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करे। क्योंकि क्रोध प्रीति का, अभिमान विनय का, माया मित्रों का तथा लोभ सब हितों का नाश करने वाला है। जिस श्रमणधर्म से इहलोक और परलोक में हित होता है, मृत्यु के बाद सुगति प्राप्त होती है, उसकी प्राप्ति के लिए मुनि बहुश्रुत साधुओं की पर्युपासना करे और अर्थाविनिश्चय के लिए प्रश्न करे। ___ उपासना के समय गुरु के पास कैसे बैठे, इसकी विधि बताते हुए लिखा है - जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर तथा शरीर को आलस्यवश न मोड़े। गुरु के पास आलीन-गुप्त होकर बैठे ।' आलीन - थोड़ा लीन। तात्पर्य की भाषा में जो गुरु के पास न अति निकट और न अति दूर बैठे वह आलीन कहलाता है। गुरु के वचन सुनने में दत्तावधान तथा प्रयोजनवश सीमित वाक व्यवहार करनेवाला गुप्त कहलाता है। शिष्य को गुरु के समीप बैठने की भी विधि बताई है - शिष्य गुरु के पार्श्व-भाग में आसन्न न बैठे, बराबर न बैठे, आगे न बैठे, पीछे न बैठे तथ उनके घुटने से घुटने सटाकर न बैठे । ६ क्योंकि पार्श्व-भाग के निकट बराबर बैठने से शिष्य द्वारा समुच्चारित १. वही - ८/१६ २. वही - ८/२० ३. दसवेआलियं ८/३६,३७ ४. वही- ८/४३ ५. वही - ८/४४ ६. वही - ८/४५ १६६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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