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________________ स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ मार्मिक है - 'जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है अव्यवहारिक होना। वाचक उमास्वाति ने इसी बात को अपनी शिक्षात्मक रचना 'प्रशमरतिप्रकरण' में लिखा है - लोकः खल्वाधरः सर्वेषां ब्रह्मवारिणां यस्मात । तस्माल्लोकविरुद्ध धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम।। निश्चय अदृश्य होता है, वह व्यवहार द्वारा गम्य होता है। किसी के साथ कितनी ही सदभावना क्यों न हो, पर जब तक वह व्यवहार में नहीं उतरेगी तब तक उसकी सचाई में विश्वास कम ही होता है। व्यवहार की उपादेयता को दृष्टिगत रखते हुए भगवान महावीर ने साधक के लिए स्थान-स्थान पर उसकी उपयोगिता बताई है। भगवान महावीर ने साधक के लिए दो साधनाक्रम प्रस्तुत किए - जिनकल्प तथ स्थविरकल्प। जिनकल्पी सहाय निरपेक्ष होकर एकाकी जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी साधना विशिष्ट कोटि की होती है। अतःवे व्यवहारातीत होते हैं। __ भगवान महावीर ने साधना के क्षेत्र में व्यवहार को कितना महत्त्व दिया है, यह जानने के लिा पूर्वी से निर्मूढ़ एक आगम 'दशवैकालिक' की छोटी-सी यात्रा की जा रही है। भगवान महावीर ने ऐसे अनेक विधिनिषेधों के संकेत दिए हैं, सिमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में स्थूल दृष्टि से हिंसा आदि से बचने का ही दृष्टिकोण रहा है। पर कहीं ऐसे विधान और निषेध हैं, जहां हिंसा आदि से बचने की अपेक्षा व्यवहारिक दृष्टिकोण अधिक प्रबल रहा है। कहीं ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं, जहां हिंसा आदि की किंचित भी संभावना नहीं है, फिर भी वे कार्य निषिद्ध हैं। साधुत्व स्वीकरण के बाद साधक की दिनचर्या का एक महत्त्वपूर्ण भाग है-भिक्षाचर्या। भिक्षा के बिना उसे कोई भी वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती। इसीलिए भगवान ने कहा है - 'सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं'- साधु के लिए सब कुछ याचित होता है, अयाचित कुछ भी नहीं। इसीलिए भगवान महावीर ने भिक्षा-विधि का सुन्दर विश्लेषण किया। कार्य का जितना महत्त्व नहीं होता उतना विधि का होता है। प्रत्येक क्रिया के पीछे क्यों, कब, कैसे ? प्रश्न जुड़े होते हैं। इन प्रश्नों को उत्तरित करने वाली कार्य पद्धति ही व्यवहारिक उच्चता प्राप्त कर सकती है। मुनि भिक्षा के लिए कब जाए? इसका सुन्दर समाधान देते हुए भगवान ने कहा - 'काले कालं समायरे' - जब भिक्षा का समय हो, तब जाए। काल का अतिक्रमण कर भिक्षार्थ जानेवाला भिक्षु निन्दा, तिरस्कार एवं अविश्वास Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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