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________________ जीवनवत जुगमन्दिर दास जी जैन के स्नेहपूर्ण आग्रह से १६७२ ई. के पयूषण पर्व में हमारा कलकता जाना हुआ। हम भाई स्व. जुगमन्दिर दास जी के निवास स्थान पर ठहरे थे। अगले दिन प्रातःज्ञात हुआ कि एक सज्जन हम से मिलने के लिए नीचे की मंजिल में प्रतीक्षा कर रहे है। गये तो श्री बांठिया जी से स्नेह गद-गद भेंट हुई और लगभग पौन घंटा चर्चा वार्ता होती रही। हृदयरोग के कारण यह ऊपर नहीं आना चाहते थे। किन्तु अगले दिन सबेरे ही देखा कि वह अपने ही चले आये। बड़ा संकोच हुआ किन्तु अपनी विनम्रता से उन्होंने हमारा समाधान किया। और अपनी योजना की चर्चा में तल्लीन हो गथे। समय का भी कुछ ध्यान नहीं रहा। उनका स्नेह तो मिला ही, प्रेरणा भी मिली। देखो, ऐसी शारीरिक स्थिति एवं व्यापारिक उलझनों व व्यस्तताओं के बावजूद यह दीवाना अपनी निस्वार्थ साहित्य साधना एवं सांस्कृतिक सेवा में कैसा लीन है। विद्वात्वर्य स्व. श्री मोहनलालजी बांठिया की पुण्य स्मृति मे अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूं। किन्हीं भी परिस्थितियों में हो, उपयुक्त संयोगों एवं निमित्तों के मिलने अथवा स्वपुरुषार्थ द्वारा मिलाने से अपना आत्म विकास कर सकता है। उक्त आध्यात्मिक विकास के फलस्वरूप यह भी सम्भावना है कि वह मिथ्यात्व भाव में से निकल कर सम्यक्त्व भाव में आ जाये, और तब उसी जन्म अथवा निकट जन्मान्तरों में मुक्ति, निर्वाण या सिद्धत्व अर्थात आत्मिक विकास की चरमावस्था प्राप्त कर ले। विधिवत जैन मार्ग का सम्यक अवलम्बन करने से यह संभावना अधिक बलवती हो जाती है। किन्तु यह समझना भूल होगी सभी जैनी सम्यकत्व होते हैं, और सभी जैनेतर मिथ्यात्वी होते हैं। वस्तुतः पुस्तक में पंडितवर्ग श्री श्रीचन्द चोरड़िया ने 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' हो सकता है और कब कब, कहां-कहां, किस प्रकार किन-किन दिशाओं में और किस सीमा तक हो सकता है, इस प्रश्न का सैद्धान्तिक दृष्टि से सप्रमाण विस्तृत विवेचन किया है जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। चोरड़ियाजी आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति पर निर्मित लेश्याकोश, क्रियाकोश आदि कोश ग्रन्थों के संयोजक एवं निर्माता विदद्वय स्व. मोहनलालजी बांठिया के सहयोगी रहे हैं। उन्हीं के साथ १६७२ के पर्युषण मे अपने कलकता प्रवास के समय हमारी उनसे भेंट हुई थी। उस समय उन्होंने यह पुस्तक लिखना प्रारम्भ कर दी थी और इच्छा व्यक्त की थी कि हम उसका आमुख लिखें। अब जब पुस्तक का मुद्रण आरम्भ होगया तो उन्होंने पुनः आग्रह किया। अतएव इस Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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